Friday, 21 February 2025

अहमदाबाद के आसपास

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अहमदाबाद के आसपास

गांधीनगर में सिवा सरकारी मकानों के खास कुछ नहीं है। लेकिन हम उस दिशा में जाएँगे "अडालज बाव" देखने। अहमदाबाद से 19 किलोमीटर की दूरी पर यह अत्यंत सुंदर बावली सन् 1499 में रानी रुड़ाबाई ने बनवाई थी। पानी तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। दीवार और खंभों पर पक्षी, मछलियाँ, फूल-पत्ते एवं अन्य सुशोभनों की नक्काशी की गई है। पत्थर के पक्षी ऐसे सुंदर हैं मानों अभी पंख फैलाएँगे।

पत्थर के पक्षियों को सजीव रूप में देखना हो तो नल सरोवर चलना होगा। यह स्थान अहमदाबाद से लगभग 65 किलोमीटर दूर हैं। सरोवर बहुत ही विशाल है, पर अधिक गहरा नहीं है। वर्षाऋतु के पानी से वह भर जाता है, गर्मियों में फिर सूख जाता है। नवंबर से फरवरी तक यहाँ तरह-तरह के पक्षी आते हैं और काफी दूर-दूर से, उत्तर में उत्तर ध्रुव से और दक्षिण में आस्ट्रेलिया से भी आते हैं। गुलाबी जलसिंह (रोज़-पेलिकन) हंसावर (फ्लेमिंगो), सफेद लकलक (स्टोक) क्रौंच, सारस, सुरखाब, बतख, बगुला इत्यादि कई पक्षियों का मेला लगता है। इसे पक्षियों का अभयारण्य कहते हैं। शिकार मना है। पक्षियों के बीच जाकर कुछ दिन रहना हो तो उसका भी प्रबंध है। लगभग नब्बे लोग रह सके इतने कमरे वहाँ बने हैं।

सरोवर के बीच में हिंगलन और भुरेख नाम की देवियों के मंदिर बनें हैं। पक्षियों का ऐसा ही एक मेला कच्छ में भी है, पर जब हम कच्छ पहुँचेंगे तब ही उसको देखहमारा गुजरात

सकेंगे। इस समय तो चलते हैं लोथल। प्रकृति से प्राचीन इतिहास की ओर सरोवर से समृद्ध संस्कृति की ओर।

लोथल

आज से लगभग बीस साल पहले अहमदाबाद से कोई नब्बे किलोमीटर की दूरी पर सरगवाला नाम के एक गाँव में अद्भुत चीज़ पाई गई। जमीन को खोदने पर भीतर से पूरी नगरी निकल आई। यह संस्कृति हड़प्पा और मोहन जोदड़ो की संस्कृति के समय की, अर्थात ईसा पूर्व दो सहस्राब्दी (मिलेनियम) की है। इससे पता चलता है कि हड़प्पा की संस्कृति गुजरात से खंभात तक फैली हुई थी। आज यह स्थान लोथल के नाम से प्रसिद्ध है।

सदियों पुरानी नगरी लोथाल

दाद के आसपास

सरगवाला गाँव में लोथल नाम का एक टीला है। गुजराती में लोथल शब्द "लोथ" से आया है। "लोथ" याने मृता लोथल का अर्थ भी कुछ अंश से मोहन-जो-दड़ो जैसा ही हुआ। सिंधी शब्द दड़ो का अर्थ है टीला।

यहाँ जब पूरी नगरी ही बसी हुई थी तब तो मनुष्यों को रहने के लिए जो सुविधाएँ चाहिए वह सारी होनी चाहिए। आइए, कुछ समय के लिए अतीत में घुस जाते हैं। इतिहास के पन्नों को फिर से जीवित कर देते हैं। हज़ारों वर्षों पहले जिन लोगों ने यहाँ आखरी सांस ली थी, उनके रहनसहन को देख लेते हैं।

लोथल में एक बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि यह व्यापार का बड़ा केन्द्र रहा होगा। हड़प्पा के लोग भी यहाँ इसी कारण आ पहुँचे होंगे। सौराष्ट्र के मध्य से भोगवो नदी निकलती है और लोथल टीले के बीच से गुज़रती हुई साबरमती नदी से जा मिलती है। साबरमती नदी अरब सागर से मिल जाती है। इस प्रकार लोथल से समुद्री रास्ते तक पहुँचकर दूसरे देश से व्यापार करना संभव था। इसका और एक प्रमाण मिल जाता है लोथल के मालगोदाम से। सूरज की धूप में पकाई गई ईंटों से यह गोदाम बना है। काफी बड़ा है- 140' x 135'। दूसरा सबूत मिलता है तरह-तरह की मोहरों से। महत्त्वपूर्ण व्यवसाय केन्द्रों में ही इतनी सारी मोहरों का प्रयोग होता है। यहाँ का गोदीबाड़ा भी बड़ा प्रभावशाली है। यह भी ईंट से बनी 710' x 116' की बड़ी इमारत है। कहा जाता है कि लोथल का गोदीबाड़ा सारे संसार के गोदीबाड़ों में सबसे पहले बना था। नाविकों द्वारा प्रयोग में लाये गये पत्थर के लंगर भी यहाँ पाये गये हैं।

लोथल से जो औजार मिले हैं वे सारे किसी-न-किसी वस्तु के बनने के लिए प्रयोग में लिए जाने वाले औजार हैं। युद्ध के या किसी को मारने के कोई औजार नहीं मिले हैं। इस से हम कह सकते हैं कि वहाँ की प्रजा बड़ी शांतिप्रिय थी। गुजराती प्रजा आज भी शांतिप्रिय मानी जाती है।

शांतिप्रिय प्रजा को ही कलाकारीगीरी के लिए समय मिलता है। लोथल से देवी की आकृति की, बैल, कुत्ते, शेर, मोर, रीछ इत्यादि की मिट्टी से बनी सुंदर मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। मोहर के ऊपर भी हाथी, एकश्रृंगी, बकरी या पक्षी की आकृतियाँ बनी हैं। बर्तनों पर भी सुंदर चित्र पाये गये हैं।

हमारा गुजरात

कुछ वेदियाँ पाई गई हैं जिन पर पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी और कुछ ऐसी कब्रें भी मिली हैं जिनमें एक साथ दो व्यक्तियों को दफनाया गया है।

इसके अतिरिक्त गलियाँ, बाज़ार, चौड़े रास्ते, स्नानघर, मोरियाँ इत्यादि हैं। कल्पना कर लीजिए कि आज जो मकान और रास्ते शांत हैं, जो गोदाम खाली हैं, जो दीवारें खंडहर हो चुकी हैं, सालों पहले उनमें भी हमारे दिल की तरह जीवन की धड़कन थी, वे भी सांस लेती थीं। उनकी रगों में भी खून दौड़ता था और उसकी गलियों में भी जीवन की चहल-पहल रहा करती थी। गलियों में मानव थे।

और अब? कारवाँ गुज़र गया। हवा में उड़ी हुई धूल भी धरती पर शांत होकर जम गई, मानो समय थम गया, धरती की कई परतों के नीचे।


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