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सूरत
वलसाड के बाद आ गया सरत जिला। सुरत का नाम लेते ही मुँह में पानी आ जाता सात् गुजराती में एक कहावत है कि "सूरतन जमण अने काशीनं मरण" याने बढ़िया स बढ़िया भोजन खाना है तो सुरत जाइए और सीधे स्वर्ग पहुँचाने वाली मृत्यु चाहिए बडियाशी जाइए। सूरत की शान का तो जवाब नहीं। जब खाने-पीने की बात चली है तो पहले उसे ही देख लें।
जैसे हमारी बस सूरत के बस-स्टैंड पर रुकी तो वहाँ घारी और नानखतार्ड बेचने वाले दौड़ आये। घारी सूरत की बड़ी मशहूर मिठाई है। ऊपर घी की मोटी परत होती है और अंदर खोया व मेवा भरा रहता है। नानखताई बिस्कुट भी यहाँ की विशेषता है। दिवाली के दिनों में और एक चीज़ मिलती है, जिसे "पोंक" कहते हैं। खेतों में ज्वार के दाने लग गये हैं पर वह अभी पकी नहीं है। उनको भूना जाता है। ज्वार के दाने जो पोंक कहलाते हैं, उनके साथ लहसुन की चटनी, खूब महीन भुजिया और मट्ठा... अहाहा.... मज़ा आ गया। इन दिनों हरी सब्जियाँ भी बहुत अच्छी मिलती हैं। गुजराती लोग कई तरह की सब्जियों को एक मिट्टी के घड़े में रखकर, घड़े का मुँह घास से बंद करके उसे ज़मीन में गड्डा खोदकर रख देते हैं। फिर उसके चारों ओर लकड़ी से आग जलाते हैं। इस प्रकार बनाई गई सब्जी को उंधियु कहते हैं। उंधियु पूरे गुजरात में बनाया जाता है, लेकिन उसके लिए विशेष प्रकार की सेम चाहिए जो सूरत के पास कतार गाँव में ही उगती है। रुपहले रंग की यह सेम रेशम जैसी चिकनी होती है उसके अंदर तीन दानें होते हैं। किसी भी सेम
में आपको न दो दाने मिलेंगे, न चार। है न कुदरत का कमाल। इस सेम की इतनी महिमा है कि भारत के किसी भी कोने में रहते हुए गुजराती व्यक्ति को यदि सर्दी के मौसम में दक्षिण गुजरात से गुजरना हो तो वह इसे साथ ले ही जाएगा।
सूरत का और एक आकर्षण है मकरसंक्रांति का त्यौहारा 14 जनवरी को जब सूर्य उत्तरायण में जाता है तब सारे गुजरात में पतंगें उड़ाई जाती हैं। इस त्यौहार को गुजरात में "उतराण" कहते हैं। छोटे-बड़े सब घर की छतों पर चढ़कर, खुले मैदानों मैं जाकर पतंगें उड़ाते हैं। इसकी तैयारी कई दिन पहले शुरू हो जाती है। शीशे का बारीक चूरा बनाकर "मांजा" तैयार किया जाता है, जिससे दूसरों की पतंग को काटा जा सके। अलग-अलग मोहल्लों के बीच में स्पर्धा होती है। सारा आकाश पतंगों से छा जाता है।
मूल सूरत के रहने वाले यदि नौकरी या किसी अन्य कारण से सूरत के बाहर हों तो उतराण के दिन सूरत पहुँच ही जाएँगे।
सूरत के लोग शौकीन है। अच्छा पहनना, अच्छा खाना, मौज करना। सूरत का इतिहास देखें तो मालूम होता है कि गोपी नामके ब्राह्मण ने यह शहर बसाया था। लगभग चौदहवीं शताब्दी से सूरत का विदेशों से व्यापार होता था।
सूरत समुद्र के किनारे नहीं है। तापी नदी के किनारे बसा हुआ यह शहर अरबी समुद्र से केवल 20 किलोमीटर दूर है और नदी के कारण समुद्र से जुड़ा हुआ है। इसी लिए तो यहाँ विदेशी आते रहे, आक्रमण भी करते रहे। पुर्तगालियों ने इस पर तीन बार हमला किया था और जला भी डाला था। ऐसे हमलों से अहमदाबाद के राजा को बहुत गुस्सा आया। सूरत शहर की रक्षा के लिए उन्होंने शहर के चारों ओर किला बनवाने का आदेश दिया और तुर्कस्तान के विशेषज्ञों को बुलाया। सन् 1546 में किले का निर्माण पूरा हुआ। इसकी दीवारें 18 मीटर ऊँची थीं। किले के चारों और 18 मीटर चौड़ी खाई बनाई गई थी। अब तो खाई के कुछ हिस्से को मिट्टी से भरकर उस जमीन का उपयोग किया जा रहा है। किले की एक तरफ की दीवार भी तोड़ दी गई है जिससे फैले हुए शहर में यातायात की सुविधा रहे। चौदहवीं शताब्दी में मुहम्मद तुगलक ने भी भील जाति के आदिवासियों के हमले से शहर की रक्षा करने के लिए किला बनवाया था। किला होते हुए भी सूरत पर हमले होते रहे, दुकानें और लोग लूटते रहे। शिवाजी ने भी सूरत पर दो बार हमला किया था।
10 इस किले के अतिरिक्त डच काल का कब्रिस्तान कैथोलिक गिरजाघर और संग्रहालय देखना नहीं भूलेंगे। यह संग्रहालय सरदार पटेल संग्रहालय कहलाता है इसमें पत्थर और लकड़ी से बनी सुंदर मूर्तियाँ हैं। सूरत में दनियाभर में मशहूर जरीकाम के नमुने हैं, तरह-तरह के वख और गहने हैं। चाँदी और सोने के तार से किया जा बाला जरी का काम सूरत की बहुत ही प्राचीन कला है। ईसा पर्व तीसरी शताब्दी में बाला कसे भारत आये थे तब उन्होंने भारत के बारे में जो कुछ लिखा था उसमें भांन मैगस्थेस का उल्लेख है। मुगलशासन के समय में इसका बहुत विकास हुआ था। इकेली, जर्मनी, तुर्कस्तान, इजिप्ट, फ्रांस और इंग्लैंड में भी इसकी अच्छी माँग थी। सूरत में बने हुए सोने-चाँदी के धागे आज भी मद्रास, मैसूर, बनारस इत्यादि शहरों में भेजे जाते हैं और वहाँ पर जो साड़ियाँ और किनखाब बनते हैं उनमें इन धागों का प्रयोग होता है। इस संग्रहालय में आज 10,000 से भी अधिक वस्तुएँ संग्रहित हैं।
सूरत कपड़ा उद्योग के लिए भी मशहूर हैं। हाथकरघा भी है और बेशुमार मिलें भी। आजकल वहाँ हीरा-उद्योग का बोलबाला है। हीरे को काटने और पालिश करने का काम यहाँ होता है। एक जमाने में सूरत की गलियों में हीरे और जवाहरात की कई दुकानें थीं। मोती की लड़ियाँ आजकल दुकानों में जैसे फुंदने लटकते हैं, वैसे झूला करती थीं। पर फिर मुसलमान और मराठा राजाओं ने इस शहर पर कई बार हमले किए और वह उजड़ता गया, फिर बसता गया। आज यहाँ एक बार फिर हीरा उद्योग पनप रहा है।
सूरत शिक्षा और संस्कृति का भी केन्द्र है। गुजरात के महान कवि, लेखक एवं समाज सुधारक नर्मद, जिन्होंने "जय जय गरवी गुजरात" काव्य लिखा, उनकी यह जन्मभूमि है। दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय भी सूरत में ही है।
सूरत के आसपास कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। उन्हें देखकर फिर डांग के जंगल की ओर जाएँगे।
सूरत से 34 किलोमीटर दूर बारडोली नामका एक छोटा-सा नगर है। सन् 1921-22 में गांधीजी ने यहीं से बारडोली सत्याग्रह का प्रारंभ किया था। यह 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' था। अंग्रेज सरकार की कोई बात नहीं सुननी थी। इसके बाद सन् 1928 में सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में अंग्रेज सरकार को कर नहीं देने का आंदोलन शुरू हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन में बारडोली का स्थान महत्वपूर्ण है।
यहाँ पर एक स्वराज आश्रम है। गांधीजी के साथियों ने इस आश्रम की स्थापना की थी। इसमें एक 'खादी सरंजाम कार्यालय" था। खादी बनाने के लिए आवश्यक सब तरह की सामग्री, जैसे कि चरखा, तकली इत्यादि यहाँ बनाया जाता था। भारत में यह पहला इस प्रकार का कार्यालय था। बारडोली में सरदार पटेल के संपूर्ण जीवन से संबंधित सरदार स्मृति नामक एक संग्रहालय भी है। संग्रहालय के पीछे चीकू का बगीचा है। चीकू के पेड़ों के नीचे एक चबूतरा बना है और उसके ऊपर सरदार पटेल की मूर्ति बैठाई गई हैं। ऐसी हूबहू मूर्ति है कि पलभर के लिए आप यही समझ बैठेंगें की स्वयं सरदार यहाँ बैठे हैं।
सूरत के एक ओर बारडोली है तो दूसरी ओर दांडी। यह वही दांडी है जहाँ गांधीजी ने नमक का कानून तोड़ा था। यह सन् 1930 की बात है। अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से गांधीजी के नेतृत्व में सत्याग्रही चल पड़े थे। अंग्रेज सरकार ने नमक के बारे में बड़ा विचित्र कानून बनाया था। नमक हमारे ही देश के समुद्र किनारे पर तैयार होता था। पर विदेशी सरकार ने उस नमक के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया
था। यह तो बहुत ही अन्याय भरी बात थी। गांधी जी ने कहाः "हम दांडी के समुद्र किनारे जाएँगे और वहाँ बन रहे नमक को अपनी झोली में भर लेंगे। सत्याग्रहियों ने यही किया और उन पर अंग्रेजों की लाठियाँ बरस पड़ीं। गांधीजी के साथ और भी कई सत्याग्रहियों को कैद किया गया। दांडीकूच की इस घटना की खबर सारे विश्व में फैल गई थी। स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में यह एक महत्त्वपूर्ण सीमा चिहन है।
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