नरसिंह मेहता
अब तो मंदिरों की नगरी में काफी घूम लिया। नीचे उतर जाएँ? नरसिंह मेहता का मंदिर देखें या न देखें, उनके बारे में कुछ बातें सुनना बहुत जरूरी हैं। वह इसलिए कि गांधीजी का प्रिय भजन "वैष्णवजन तो तेने रे कहिये जे पीड़ पराई जाणे रे", नरसिंह मेहता का रचा हुआ है। जिसने इतना सुंदर भजन रचा वह अवश्य ही असाधारण व्यक्ति होगा।
नरसिंह मेहता बचपन से ही "भगत माणस" थे। दुनियादारी से मानों उन्हें कोई नाता नहीं था। वे पत्नी सहित अपने बड़े भाई-भाभी के साथ तलाजा में रहते थे। एक दिन काम करके शाम को घर लौटे और भाभी से पानी माँगा तो भाभी ने तानेबाजी शुरू कर दी। नरसिंह के दिल पर गहरी चोट लगी। उसे सौतेली माँ के कटु वचन सुनकर ध्रुव के वन में चले जाने की बात याद आई। ध्रुव ने वन में जाकर तपस्या की थी, ईश्वर के दर्शन पाये थे। नरसिंह भी घर छोड़कर वन के किसी वीरान शिवालय में बैठकर कड़ी तपस्या करने लगे। सात दिन तक न कुछ खाया न पिया। भगवान शिवजी तपश्चर्या से प्रसन्न हुए। उन्होंने नरसिंह से वरदान माँगने को कहा। नरसिंह बोलेः "आपको जो प्रिय हो वही दीजिए।"
शिवजी उन्हें अपने साथ श्रीकृष्ण की कर्मभूमि द्वारिका ले गये। वहाँ श्रीकृष्ण की रासलीला का साक्षात्कार करवाया। फिर तो नरसिंह कुछ समय वहीं रह गये और काव् रचना शुरू कर दी। जब वे तलाजा लौटे तो भाई-भाभी ने और गाँव के लोगों ने उनक सम्मान किया। नरसिंह ईश्वर भजन में ही अधिक समय बिताते थे।हमारा गुजराल
भाई-भाभी पर बोझ न बनने के लिए वे अपने परिवार के साथ जूनागढ़ आ गये। जीवन-निर्वाह के लिए छोटा-मोटा काम कर लेते थे।
वे नियमित रूप से गिरनार पर्वत की तराई में दामोदर कुंड में स्नान करने जाया करते थे। एक दिन स्नान करके लौट रहे थे, तब अस्पृश्य जाति के लोगों ने उनसे अपनी बस्ती में आकर कीर्तन करने की प्रार्थना की। नरसिंह वहाँ कीर्तन करने गये। रातभर कीर्तन होता रहा। हरिनाम का उत्सव हो गया। सुबह जब घर लौटे तो देखा कि जिस मोहल्ले में उनका घर था उसके सारे लोग उनका तिरस्कार करने लगे थे। नरसिंह ने उत्तर में कहा, "मैं छोटे कर्म करने वाला नरसिंह हूँ, मुझे तो वैष्णव प्यारे हैं। हरिजन से जो दूरत्व रखेगा, उसका जन्म व्यर्थ हो जाएगा।" इस अर्थ का एक काव्य भी उन्होंने रचा है।
नरसिंह मेहता
यहाँ नरसिंह कहना यह चाहते हैं कि हरिभक्त किसी भी कौम, धर्म या जात का हो सकता है। भक्ति में भेदभाव को स्थान नहीं है। हरि की भक्ति करने वाले सभी हरिजन हैं। दलित कौम के लिए गांधीजी ने "हरिजन" शब्द को जो अपनाया और उसे व्यापक किया उसकी मूल प्रेरणा नरसिंह के इस शब्द के प्रयोग में हैं।
भारत का सौभाग्य है कि उसे ऐसे सत्पुरुष निरंतर मिलते रहे हैं।
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