भरूच और खेड़ा
अब हम आगे चलें। यह है भरूच शहर। नर्मदा नदी के किनारे बसा हुआ भरूच अरबी सागर से 48 किलोमीटर दूर है। जब ज्वार आता है तब बड़े-बड़े जहाज बहते हुए भरूच तक पहुँच जाते हैं। 48 किलोमीटर का समुद्री रास्ता काटने में तीन दिन लग जाते हैं। इस शहर का प्राचीन नाम है भृगुकच्छ। कहते हैं कि लगभग पाँच हजार साल पहले भूगु ऋषि ने यहाँ अपना आश्रम बनाया था, इसलिए यह स्थान भृगुकच्छ कहलाया। लगभग ढाई हजार साल पहले ग्रीक प्रजा का भारत के साथ इसी बंदरगाह से व्यापार होता था। बाद में भी चीन, श्रीलंका, मध्यपूर्व के कुछ देश तथा पूर्व में जावा, सुमात्रा के साथ व्यापार होता रहा। अब नर्मदा नदी में बहाव के कारण मिट्टी जमा हो जाने से तथा सड़कों पर यातायात बढ़ जाने से बंदरगाह का प्रयोग नहीं के बराबर होता है। भरूच के पास अंकलेश्वर में तेल निकलता है, जिसके कारण भरूच फिर एक बार महत्त्वपूर्ण शहर बन गया है।
भरूच जिले में नर्मदा नदी के किनारे शुक्लतीर्थ नाम का एक तीर्थस्थान है। उसी के पास एक बहुत ही बड़ा बड़ का पेड़ है, जिसे "कबीरबड़" कहते हैं। एक किंवदंती के अनुसार संत कवि कबीर ने अपने दांत साफ करके दातुन की एक चीर इधर फेंकी थी। उसी से यह इतना विशाल पेड़ बन गया है। भरूच से आगे खेड़ा जिले का डाकोर नगर भी बड़ा तीर्थस्थान माना जाता है। एक भक्त ने द्वारका से श्रीकृष्ण की मूर्ति यहाँ लाकर मंदिर बनाया था। प्रत्येक शरद पूर्णिमा के दिन डाकोर में बड़ा मेला लगता है। हज़ारों यात्री इस मेले में हिस्सा लेते हैं। मंदिर के प्रांगण में भजनों की धूम मच जाती है।
खेड़ा जिले में खेती, पशुधन और उससे संबंधित उद्योगों का काफी विकास हुआ है। आणंद शहर इसी जिले में हैं। शहर तो बहुत छोटा है लेकिन वहाँ अमूल डेरी है, जिसके कारण वह विख्यात हो गया है। इस डेरी में दूध का पाउडर, मक्खन, घी, पनीर इत्यादि बनते हैं। हमारे देश में बच्चों को दूध पिलाने के लिए जो पाउडर बनता है। उसका 63 प्रतिशत उत्पादन गुजरात में होता है और सारे भारत में जितना दूध का पाउडर बनता है उसमें 47 प्रतिशत योगदान गुजरात का है।
इस जिले का खंभात शहर प्राचीन बंदरगाह है। एक ज़माने में वह बहुत ही समृद्ध शहर था। बंदरगाह होने के कारण से अन्य देशों के साथ व्यापार होता था। खंभात में अकीक के पत्थर की खाने हैं। यह पत्थर हीरे जितना तो मूल्यवान नहीं है, लेकिन अकीक अल्प मूल्यवान पत्थर माना जाता है। इस्वी सन् पूर्व चौथी शताब्दी में रोमन लोग भारत से यह पत्थर मँगवाते थे और उसकी अंगूठियाँ बनवाते थे।
अकीक के रंग बड़े सुन्दर होते हैं। गहरे लाल रंग का अकीक सबसे कीमती माना जाता है। खान में से निकालने के बाद अकीक को मार्च-अप्रैल के सूरज की धूप में
भरूच और खेड़ा
लगभग दो महीनों तक सुखाया जाता है। पत्थर के भीतर पानी रह जाय तो उस पर काम करते समय वह टूट जाता है। उसे आग पर गरम करने से भी उसके टूटने का डर रहता है। इसलिए सबसे अच्छा तरीका है धूप में सुखाने का। सुखाने के बाद उसे गरम किया जाता है। बाद में उसे पालिश करके उससे माला, अंगूठी इत्यादि वस्तुएँ बनाई जाती हैं। इन चीज़ों की कीमत चार-पाँच रुपयों से लेकर हजारों रुपयों तक की होती है।
खंभात की और एक विशेषता है "सूतर फेणी"। मैदे से बनी हुई यह मीठी सेवईयाँ मुँह में डालते ही पिघल जाती हैं। वे इतनी महीन होती हैं कि बच्चे उसे "बुढ़िया के बाल" कहते हैं।
इस प्रकार खेड़ा जिले में शरीर को तंदुरस्त रखने के लिए दूध है, स्वाद के लिए सूतरफेणी है, शरीर की सजावट के लिए अकीक के आभूषण हैं और जीवन को सब प्रकार से समृद्ध बनाने के लिए शिक्षा-संस्थाएँ भी हैं। इनमें सबसे अधिक विख्यात है वल्लभविद्यानगर विश्वविद्यालय। अधिकतर ऐसा होता है कि शहर और उसकी आबादी की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए विद्यालय एवं विश्वविद्यालय बनते हैं। इधर बात उलटी है। विश्वविद्यालय की योजना पहले बनी, जमीन बाद में मिली। वहाँ पर कालेज बने, उससे जुड़ी हुई अन्य संस्थाएँ बनीं। इस प्रकार विद्या को केन्द्र में रखकर पूरा नगर रचा गया। इस विद्यालय का नाम सरदार वल्लभभाई पटेल के नाम से जुड़ा है। वे हमेशा कहते थे कि शिक्षा ऐसी हो जिससे विद्यार्थी चरित्रवान नागरिक बने। इस विद्यालय का मूल मंत्र है: "शीलवृत्तफलंश्रुतम्”, याने ज्ञान का फल है शीलयुक्त व्यवहार। शिक्षा तब ही सार्थक है जब वह मनुष्य के चारित्र्य का गठन कर सके। सारा गुजरात ऐसी शिक्षा संस्थाओं से समृद्ध है।
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