अहमदाबाद
200 किलोमीटर का रास्ता कैसे कट गया, पता ही नहीं चला। रातभर सबने भवाई की मौज ली इसलिए बस में बैठते ही खर्राटें मारना शुरू हो गया।
अहमदाबाद पहुँचकर बस अड्डे से बाहर निकले तो चारों ओर भीड़भाड़, दुकाने, 'ट्रैफिक जाम'। उफ! लगता है बहुत पुराना शहर है। हाँ, पुराना ही है। सन् 141। वें मुरेलिमान सुलतान अहमद शाह ने साबरमती नदी के किनारे अपना डेरा डाला था। कहानी" ऐसी है कि अहमद शाह के डरावने कुत्ते नदी किनारे घूमते हुए खरगोशों को देखकर भौंकने लगे थे। वे खरगोश डर के मारे भागे नहीं। उन्होंने उलटा उन कुत्तों का सामना किया। यह देखकर सुलतान दंग रह गया। उसने सोचा कि जिस धरती के खरगोश ऐसे हो उसमें जरूर कुछ खास गुण हैं। मुस्लिम संत अहमद खट्टु गंज बक्श से सलाह लेकर अहमद शाह ने साबरमती नदी के किनारे एक शहर बसाया। उसी का नाम अहमदाबाद रखा गया। गुजराती में इसे "अमदावाद" कहते हैं।
इस शहर में बहुत ही सुंदर ऐतिहासिक इमारतें हैं। मुगलों के आने से पहले की मुस्लिम स्थापत्यकला के साथ हिंदू शैली का सुरुचिपूर्ण मेल और बाद के मुगल व जैन शैली के स्थापत्य भी यहाँ मौजूद हैं। यही नहीं, गांधीजी का साबरमती आश्रम है, बेसुमार कपड़ा-मिलें हैं। कपड़ों के इतिहास को सजीव बनाता हुआ संग्रहालय है। बस, आप कम-से-कम आठ दिन का प्रोग्राम बनाकर घूमते रहिए। ये भी कम पड़ेंगे, क्योंकि अहमदाबाद के आसपास लोथल, अडालज बाव और नल सरोवर तो देखने ही देखने हैं।
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हमारे ठहरने का प्रबंध ला गार्डन के पास एक मित्र के घर में किया गया है। शाम के समय ला गार्डन की रौनक भी देखने लायक होती है, इसलिए दो-चार दिन वहाँ ठहरेंगे, दो-चार दिन रेलवे स्टेशन के पास धर्मशाला में ठहर जाएँगे।
मित्र के घर पहुंचकर पहले तो नहा-धो लेते हैं। इतने दिन के कपड़े भी धोने हैं। घर के बीचोबीच खुली जगह है। वहाँ कपड़े सुखाने के लिये रस्सी बंधी हुई है। धूप भी अच्छी आ रही है। इधर रसोई से दूधपाक की खुशबू भी अच्छी आ रही है। बढ़िया भोजन मिलने वाला है। बरामदे में एक किनारे पर दरी बिछा दी गई है। सामने लकड़ी की छोटी चौकियाँ रखी हैं। हम दरी पर बैठ गए तो खाना परोसना शुरू हुआ। चौकी पर स्टील की थाली है। थाली में तीन कटोरियाँ हैं। थाली के बाहर पानी पीने का गिलास रखा है। दरी पर खद्दर का नैपकीन है, उसे हमने गोद में बिछा लिया है।
सबसे पहले आया दूधपाका दूध में थोड़े से चावल डाले हैं। रबड़ी से पतला है और दूध से गाढ़ा है। पीसी हुई इलाइची और केसर भी है। बादाम के पतले-पतले टुकड़े भी हैं। दूधपाक के पीछे चली आ रही हैं छोटी-छोटी गोलमटोल पुरियाँ और यह हरी-हरी गोल-गोल चीज क्या है? इसे पातरा कहते हैं। अरबी के पत्तों पर बेसन लगाकर उसको बेलन के आकार में मोड़ देते हैं। फिर भाप से पकाकर, बहुत सारी सरसों और तिल से छौंकते हैं। पातरा के पीछे है कढ़ी। खट्टे दही और बेसन से बनती है। और ये हैं अंकुरित मोठा अंकुरित धान्यों में विटामिन अधिक होते हैं। गांधीजी ने अपने आश्रम में इन बातों पर जोर दिया था, इसीलिए गुजराती घरों में अंकुरित धान्य आम पाये जाते हैं। थाली में एक कटोरी अभी खाली है। लो, भर गई। इसमें आ गई लौकी और मटर की रेसेदार सब्जी। एक सूखी सब्जी भी है, सेम और बैंगन की। वही कतारगाम वाली सेम है। थाली में एक और कुछ सलाद, चटनी और रायता भी रख दिया गया है। बहुत ही स्वादिष्ट खाना है। पुरियाँ खा लीं तो चावल आये। चावल के साथ मूंग के पापड़ भी। खाना खाकर हाथ धोये तो हाथ में छोटी बोतल थमा दी गई। उसमें भुनी हुई नमकीन सौंफ थी। गुजरात में भोजन के बाद ऐसा कुछ खाने की प्रथा है। उसे "मुखवास" कहते हैं। "वास" याने गंध। मुँह में से भोजन की गंध दूर करने के लिए मुखवास खाया जाता है।
इतना बढ़िया भोजन खाने के बाद पलकें नींद से बोझिल हो गई। रात की "भवाई" का भी नशा था। थोड़ी देर सो ही जाते हैं। फिर शाम को कांकरिया सरोवर की सैर करनेकांकरिया सरोवर
जाएँगे। सुना है कि यह बड़ा सुंदर सरोवर है। जहांगीर और नूरजहाँ इस सरोवर में नौका विहार किया करते थे।
कांकरिया सरोवर
सन् 1451 में सुलतान कुतुबुद्दीन ने यह सरोवर बनवाया था। इसीलिए इसका असली नाम "हौजे कुतुबु" था। इसकी परिधि दो किलोमीटर से भी अधिक है। सरोवर के बीच में एक द्वीप है। उस पर महल बना है, बगीचा भी है। इसे नगीना-वाड़ी कहते हैं। अहमदाबाद में गरमी काफी पड़ती है। इससे बचने के लिए यह 'ग्रीष्ममहल' बनवाया गया था। आजकल अहमदाबाद की नगर-पालिका ने यहाँ बालवाटिका, पिकनिक-घर, खुला प्रेक्षागृह, छोटा-सा मछली-घर और चिड़ियाघर बनाये हैं। बालवाटिका में बच्चों के लिए सुंदर पुस्तकालय है, खिलौना-घर और शीशा घर है। शीशा घर में तरह-तरह के शीशे लगे हैं। किसी में आप ठिगने और मोटे दिखेंगे तो किसी में लंबे और पतले। हँस, हँसकर पेट में बल पड़ जाएँगे।
जहांगीर और नूरजहाँ की तरह हम भी नौका विहार कर लें। फिर ला गार्डन चले जाएँगे।33
ला गार्डन
यह एक साधारण-सा बगीचा ही है, लेकिन इसके मशहूर होने के कारण कुछ और हैं। बगीचे के बाहर की फुटपाथ पर बहुत सारी ग्रामीण महिलाएँ लोक कला की सुंदर कृतियाँ बेचने बैठती हैं। गुजरात की कढ़ाई एक अनोखी चीज है। गुजराती में कढ़ाई को "भरत" कहते हैं। जो कौम कढ़ाई करती है उन्हीं के नाम से वह कढ़ाई पहचानी जाती है, जैसे कि मोची भरत, कणबी भरत, काठी भरत इत्यादि। सौराष्ट्र और कच्छ की कुछ कोमें भी बहुत सुंदर कढ़ाई करती हैं। घर को सजाने के लिए "वाकला", "तोरण" आदि होते हैं। पुरुष और स्त्रियों के पहनने के वस्त्रों पर भी कढ़ाई होती है। इसी प्रकार पशुओं को ओढ़ने व सजाने के कपड़ों को कढ़ाई से सुशोभित किया जाता है। इनके अतिरिक्त थैले, बटुए इत्यादि भी बनाये जाते हैं। आजकल तो ये महिलाएँ केवल ला गार्डन की फुटपाथ पर नहीं, दिल्ली के जनपथ पर और बम्बई के होटलों के बाहर भी बड़ी कुशलता से अपनी कला विदेशियों को और अन्यों को बेचती हैं।
हमने भी आठ रुपये का एक बटुआ और पचीस रुपये का एक थैला खरीद डाला।
आगे चलें तो बाप रे बाप, कितनी भीड़ है यहाँ। लोग खाने पीने की मौज मना रहे हैं। पूरा रास्ता ही भेलपुरी, पानीपुरी, पाँऊ-भाजी, कोठी का आइसक्रीम इत्यादि बेचने वालों की रेहड़ियों से खचाखच भर गया है। किसी ने फुटपाथ पर एकाध बैंच लगा दी है। अधिकतर लोग अपनी मोटर में बैठकर या स्कूटर और मोटरबाइक पर बैठकर ही चाट का स्वाद लेते हैं। हम जैसे फक्कड़ हों वह खड़े रहकर खाएँ। वैसे दिन में दूधपाक इत्यादि इतना ज्यादा खा लिया था कि खास भूख नहीं है, पर इन चीजों से कुछ का स्वाद कर लेना भी बढ़िया रहेगा। नहीं चखेंगे तो यह शहर हमसे नाराज हो जाएगा और ला गार्डन तो रूठ ही जाएगा।
अहमदाबाद-दर्शन
अहमदाबाद में दर्शनीय स्थान इतने अधिक हैं कि एक टूरिस्ट की तरह ही सब कुछ फटाफट देख लेना होगा। साबरमती आश्रम को बहुत गौर से देखना है तो पहले अन्य स्थान देख लेते हैं। आश्रम आखिर में देखेंगे।हमारा गुजरात
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सुलतान अहमद शाह ने सन् 1423 में पीले रेतीले पत्थर से जामा मस्जिद बनवाई थी। हर शुक्रवार को यहाँ बहुत बड़ी नमाज़ होती थी। इस मस्जिद में 260 खंभे हैं और ऊपर पन्द्रह गुम्बद हैं। उन पर हिलती हुई मीनारें भी थीं। सन् 1818 के भूकंप में वे टूट गई।
हिलती हुई दो मीनारें सीदी बशीर मस्जिद में भी हैं। यह मस्जिद इन मीनारों के कारण विख्यात हो गई है। इसकी खूबी यह है कि आप एक मीनार हिलाएंगें तो दूसरी अपने आप हिलने लगेगी। बड़ी अचरज की बात है। आज तक कोई इसकी करामात को समझ नहीं पाया है। ऐसी ही दो हिलती मीनारें राज बीबी की मस्जिद में हैं। हिलने के रहस्य की खोज करने के लिए इन दो में से एक को उतार दिया गया था, लेकिन उसके बाद भी रहस्य का पता नहीं चला। इनका निर्माण 400 से अधिक वर्ष पहले हुआ था। आज भी वे अच्छी स्थिति में हैं।
सीदी सैयद की मस्जिद सुलतान अहमद शाह के गुलाम सेवक सीदी सैयद ने बनवाई थी। इसकी खिड़कियों पर पत्थर की जालियाँ हैं। पत्थर को काटकर जो नक्काशी की गई है वह इतनी महीन है कि लगता है, जैसे पत्थर के तार से डिज़ाइन बनाया गया हो। अमरीका और इंग्लैंड के संग्रहालयों में इस जाली की प्रतिकृति लकड़ी से बनाकर
सीदी सैयद की जाली
अहमदाबाद
रखी गई है। लकड़ी को कुरेदना तो फिर भी आसान है। पत्थर में इतना बारीक काम करना बहुत मुश्किल है।
अहमदाबाद में ऐसी कई मस्जिदें हैं जिनकी कोई न कोई विशेषता है। मुसलमान सुलतान महमूद बेगड़ा की एक हिंदू पत्नी थी। उसका नाम था रानी रूपमती। इस हिंदु रानी की भी एक मस्जिद है। इसमें बारह खंभों पर एक गुम्बद, ऐसे तीन गुम्बद हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दू-मुसलमान स्थापत्य कला के मिश्रण की जो शैली पाई जाती है, उसी शैली में यह मस्जिद बनी है। इसकी भी मीनारें थीं, लेकिन सन् 1818 के भूकंप में वे ढह गई।
जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ के भाई ने संतशाह आलम का मकबरा और मस्जिद बनवाये थे। संगमरमर की नक्काशी के फ्रेम में बने पीतल के दरवाजे इस इमारत की विशेषता हैं।
अहमदाबाद शहर से बाहर निकलते ही आठ किलोमीटर की दूरी पर मुगल स्थापत्यकला का अत्यंत सुरुचिपूर्ण सादगी का उदाहरण मिलता है सरखेज में। यहाँ महमूद बेगड़ा और उसकी रानी राजाबाई के मकबरे हैं, महल हैं और संत अहमद खट्टु जंग बक्श का भी मकबरा है। साथ ही में सीढ़ियोंवाली बड़ी बावली है। इनमें से किसी भी इमारत में मेहराब ही नहीं है। सादगी की दृष्टि से ये इमारतें बेजोड़ मानी जाती हैं। गुजरात में लगभग 175 मेले ऐसे लगते हैं जो खास मुसलमान मेले या उर्स कहलाते हैं। इनमें से दो बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। एक शाह अहमद खट्टु जंग बक्श की मस्जिद के पास लगता है और दूसरा शाह आलम के मकबरे के पास। दोनों में काफी भीड़ होती है। लगभग पचीस हजार लोग इसमें भाग लेते हैं।
जैसा कि हमने पहले देखा, अहमदाबाद शहर सन् 1411 में बसाया गया था। उसी समय महलों के चारों ओर किलाबंदी की गई थी। इसे भद्र का किला कहते हैं। इस किले के भीतर शाही महल और नगीना बाग थे। बाद में महमूद बेगड़ा ने सारे शहर की चारों ओर किलेबंदी करवाई। मुगल राज्यपाल आज़म खान ने महल को उत्तर की ओर बढ़ाया था और जब मराठाओं ने अहमदाबाद पर कब्जा कर लिया तब महल के उत्तर के खंडों में से एक में देवी भद्रकाली का मंदिर बनाया। कैसी रोचक बात है! एक मुसलमान सुलतान महल बनाए और उसमें हिंदू मंदिर भी बन जाए। हिंदू-मुसलमान के भेद हम ही खड़े करते हैं। मन साफ हो तो कोई समस्या ही नहीं। गुजराती में एक कहावत है कि "मन चंगा तो, कथरोट में गंगा"। कथरोट वह थाली होती है जिसमें रोटी के लिए आटा
तैयार किया जाता है। वह 'कथरोट" तो सभी घरों में होती है, याने गंगा भी सभी यरों में पाई जाएगी, यदि मनुष्य का मन अच्छा हो।
जब मन अच्छा होता है तब हम अपने बारे में कम और दूसरों के बारे में ज्यादा सोचते हैं। गुजरात में दूसरों के बारे में सोचनेवाले लोगों ने जगह-जगह पर सीढ़ियों वाली विशाल बावलियाँ बनवाई हैं, जिससे यात्री पानी पी सकें और कुछ देर आराम भी कर सकें। सरखेज के पास जो बावली देखी वह ऐसी ही है। "दादा हरि की बाव" भी ऐसी ही है। सुलतान महमूद बेगड़ा के दरबार में एक महिला थी जिसने यह बावड़ी बनवाई थी। गुम्बद वाले प्रवेश द्वार से बावड़ी तक पहुँचने से पहले कई सीढियाँ और खंभे हैं, पत्थर के चबूतरे हैं, सभी पर बहुत ही सुंदर नक्काशी की गई है।
नक्काशी का और एक बेजोड़ उदाहरण है सेठ हठीसिंग का जैन मंदिर। सन् 1850 में अहमदाबाद के एक बहुत ही अमीर जैन सेठ ने यह संगमरमर का मंदिर बनवाया था। पन्द्रहवे जैन तीर्थंकर धर्मनाथ की इसमें स्थापना की गई है। संगमरमर की नक्काशी देखकर संदेह होने लगता है कि यह मनुष्य के हाथों से ही बना है या किसी दैवी हाथों से!
साबरमती आश्रम
अहमदाबाद में एक और मंदिर है। यह मंदिर सादगी, सेवा और समर्पण का प्रतीक है। इसका नाम है साबरमती आश्रम। गांधी जी सन् 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत आये थे। अफ्रीका में ही उन्होंने आश्रम का प्रारंभ कर दिया था। अब भारत में भी वे ऐसा आश्रम बनाना चाहते थे, जहाँ लोग एक साथ रहकर, संयमपूर्ण जीवन जीकर देश की सेवा कर सके। पूरा भारत घूमने के बाद गांधी जी ने अहमदाबाद को पसंद किया। अहमदाबाद के उपनगर कोचरब में एक बंगला था, उसी में गांधी जी एवं उनके साथ दक्षिण अफ्रीका से आये हुए लगभग बीस व्यक्ति रहने लगे। आश्रम के समूह जीवन की बात सुनकर और भी लोग इस अभिनव प्रयोग में शामिल होने आ गये। अब बंगला छोटा पड़ गया। उसी समय कोचरब में प्लेग की बीमारी फैल गई। आश्रम इससे शायद अछूता न रह पाय ऐसा डर भी था। इसलिए अब नई जगह ढूंढनी थी।
अहमदाबाद शहर से सात किलोमीटर दूर साबरमती जेल के पास का स्थान गांधी जी को पसंद आ गया। इस जमीन पर न कोई मकान था, न पेड़। उसकी एक ओर जेलहमारा गुजरात
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कपड़ा उद्योग
इस शांत वातावरण से फिर शहर के कोलाहल की ओर जाना होगा क्योंकि अहमदाबाद की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात पीछे छूट गई है। वह है कपड़ा मिलें।
अहमदाबाद में कपड़ों के उत्पादन का उद्योग इतना अधिक है कि यह शहर भारत का "मान्चस्टर" कहलाता है। मुगल शासन के समय से अहमदाबाद में बना हआ साटिन, मखमल, मशरू और कमख्वाब विदेशों में बेचा जाता था। सूत, रेशम और जरी के धागों का खूब उत्पादन होता था। तभी से अहमदाबाद काफी समृद्ध शहर है। सन् 1859 में अहमदाबाद में पहली कपड़ा मिल शुरू हुई। आज तो देश के कपड़ों के कुल उत्पादन का पचीस प्रतिशत केवल इस शहर में होता है।
वस्त्रों की विविधता देखनी हो तो केलिको संग्रहालय को देखना ही चाहिए। सत्रहवी शताब्दी से लेकर आज तक के भारत भर के कपड़ों के अत्यंत सुंदर और विरल नमूने इस संग्रहालय में संग्रहित हैं। भारतीय कपड़ों का तकनीक और इतिहास, दोनों की जानकारी यहाँ मिलती है।
उद्योग, शिक्षा और संस्कृति इन तीनों क्षेत्रों में अहमदाबाद बहुत विकसित शहर है। गांधीजी द्वारा शुरू की गई गुजरात विद्यापीठ है, गुजरात विश्वविद्यालय तो है ही, फिर सांस्कृतिक विद्या मंदिर और संस्कार केन्द्र हैं, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ डिजाइन है, इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला है, उपग्रह स्टेशन भी अहमदाबाद में ही है।
पहले तो गुजरात की राजधानी भी यहीं हुआ करती थी। अब यह 32 किलोमीटर दूर गांधीनगर में है।
थी तो दूसरी ओर श्मशाना अब आश्रमवासियों का काम शुरू हो गया। फावड़े और खुरपी लेकर जमीन साफ की, तंबू डाले और रहने लगे। लेकिन इस प्रकार के आयोजन में कई कठिनाइयाँ महसूस हुई। पक्का मकान बनाने की बहुत ही आवश्यकता थी। आखिर शहर के मिल मजदूरों को उनकी हड़ताल के दौरान कुछ काम देने के लिए गांधी जी ने उन्हीं को लगाकर एक बड़ा मकान बनवा लिया। बाद में कई पक्के मकान बने।
इनमें से एक है "हृदयकुंज"। यह गांधी जी की कुटिया है। उनकी वस्तुएँ आज भी वहाँ रखी गई हैं। 1918 से 1930 तक गांधी जी "हृदयकुंज" में रहे थे। 1930 में यहीं से गांधी जी दांडी जाने के लिए निकले थे। उस समय उन्होंने संकल्प किया था कि वे स्वराज लिये बिना इस आश्रम में नहीं लौटेंगे।
आश्रम में सभी लोग एक साथ रहते थे। प्रार्थना, सफाई-काम, कातना, बुनना, खेती, गोपालन इत्यादि आश्रम की दिनचर्या के मुख्य अंग थे। आश्रम के ग्यारह व्रत थे जो नीचे दी गई पंक्तियों में बताये गये हैं:
सत्य, अहिंसा, चोरी न करना, बिन उपयोगी का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य और जात-मेहनत, किसी के छूने से अस्पृश्य न होना, अभय, स्वदेशी, स्वाद न करना, सर्वधर्मों को समान समझना, इन ग्यारह को महाव्रत मानकर नम्रता व दृढ़ता से आचरन ।
कितनी सुंदर बात है! यह बात जीवन को कितना निर्मल और उपयोगी बना देती हैं।
साबरमती आश्रम में पुस्तकालय है, संग्रहालय भी है और गांधीजी के जीवन एवं कार्य पर आधारित ध्वनि-आलोक का एक कार्यक्रम भी दिखाया जाता है। यहीं ठहर जाना हो तो अतिथिगृह का प्रबंध भी है। यहाँ पौष्टिक स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन मिल जाता है। ऐसे शांत, स्वच्छ वातावरण में मन को अजीब-सी शांति मिलती है। स्वदेश प्रेम भी प्रबल हो जाता है।
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