Friday, 21 February 2025

पंचमहाल

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पंचमहाल

हम तो कुछ ज्यादा ही घूमने लगे हैं। गुजरात के इतने सारे जिलों के इतने सारे शहर और गाँव-सब कुछ देखने लगेंगे तो दिवाली की छुट्टियाँ तो क्या, गर्मी की छुट्टियाँ भी खत्म हो जाएँगी और हम सौराष्ट्र तक भी नहीं पहुँच पाएँगे। इसलिए जरा जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाएँ तो ठीक रहेगा।

डभोई का किला देखते समय हमने मुगल बादशाहों को याद किया था। पंचमहाल ज़िले में उनको और एक बार याद करना होगा। यहाँ के दाहोद शहर में शाहजहाँ के पुत्र औरंगज़ेब का जन्म हुआ था। मुगलों से पहले गुजरात का यह प्रदेश सुलतान महमूद बेगड़ा के अधीन था। इस सुलतान ने सन् 1484 में पंचमहाल ज़िले के चांपानेर शहर को अपनी नई राजधानी बनाया था। उसने शहर के चारों ओर किला बंदी कर दी और शहर में एक जामा मस्जिद भी बनवाई जिसकी स्थापत्य-कला देखते ही बनती है। चांपानेर में जैन स्थापत्य कला के साथ इस इस्लामी कला का मिश्रण होने से अत्यंत सुदंर शैली का सृजन हुआ है।

यह शहर पावागढ़ नामक पहाड़ी के पास है। राजा वनराज चावड़ा के सेनापति चांपा ने इसे लगभग आठवीं शताब्दी में बसाया था। एक किंवदंती के अनुसार जयसिंह देव नाम का एक पताई रावल वंश का राजा नवरात्रि के त्यौहारों में नृत्य-गान करती हुई महिलाओं को देखने निकला। उनमें एक महिला उसे बहुत ही सुंदर लगी। उसके प्रति आकृष्ट होकर जयसिंह देव ने उसका आँचल पकड़ लिया। यह महिला कोई साधारण नारी नहीं थी, मनुष्य का रूप धारण किये स्वयं देवी कालिका थीं। देवी क्रुद्ध हुई और
हमारा

24 उसने जयसिंह देव को श्राप दिया। इसी के बाद महमूद बेगड़ा के साथ उसकी लड़ाई हुई

और वह हार गया। बावागढ़ की लगभग ढाई हजार फीट ऊँची पहाड़ी पर सबसे ऊपर देवी महाकाली का बड़ा मंदिर है। कच्चे रास्ते या पत्थर से बनी सीढी के रास्ते से ऊपर जा सकते हैं।

"उससे लगभग एक हजार फीट नीचे की ओर "माची हवेली" नाम का समतल स्थान है। वहाँ भद्रकाली का मंदिर है। यात्रियों के रहने के लिए धर्मशालाएँ भी बनी हुई हैं।

माची हवेली से नीचे किला है। इस तरह पहाड़ी के तीन हिस्से हैं, नीचे किले के खंडहर, बीच में माची हवेली और किले की दीवारें और ऊपर फिर से किले की दीवारें और मंदिरा महाकाली के मंदिर के पीछे दिगंबर संप्रदाय के कई जैन मंदिर भी बने हुए हैं। उस तरफ "नवलख कोठार" के खंडहर भी हैं। पताई रावलों का यह अन्नभंडार था। भद्रकाली मंदिर के पास उनके महल के खंडहर मौजूद हैं।
पंचमहाल
इस इलाके की शान देखनी हो तो नवरात्रि के दिनों में ही यहाँ आना चाहिए। वैसे तो यह त्यौहार पूरे गुजरात में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन जहाँ कहीं महाकाली, अंबा, भवानी-जो एक ही देवी के नाम हैं के मंदिर होते है वहाँ तो नवरात्रि के नौ दिन उत्सव का वातावरण बना रहता है। दशहरा के दिन वह समाप्त होता है। गुजरात के विख्यात लोकनृत्य गरबा और रास रात-रातभर चलते रहते हैं।
छेदवाले मिट्टी के घड़े के बीच में दीप जलाया जाता है। यह दीप देवी अंबा का प्रतीक है। उसको बीच में रखकर उसके चारों ओर महिलाएँ वर्गाकार में तालियाँ बजाती हुई नृत्य करती हैं। देवी की प्रशस्ति के गीत गाती हैं। पावागढ़ का विख्यात गरबा सुना हैं?
“मा पावा ते गढ़ थी ऊतर्या मा काली रे
वसाव्युं चांपानेर पावागढ़ वाली रे..."
इसका अर्थ है कि देवी महाकाली पावागढ़ से नीचे उतर आई और उस पावागढ़ वाली ने ही चांपानेर शहर बसाया।
"गरबा" महिलाएँ करती हैं। पुरुष भी इसी प्रकार तालियों के साथ वर्गाकार नृत्य करते हैं, जिसे "गरबी" कहते हैं। आजकल तो नवरात्रि के दिनों में गरबा, गरबी और रास करने वाले विभिन्न समूहों की प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। लोगों पर ऐसी मस्ती छा जाती है कि देखने वालों पर उसका असर पड़े बिना नहीं रहता। छोटे-बड़े, सब इस में शामिल हो जाते हैं।

पावागढ़ से आगे चलने से पहले यहाँ की और एक खास बात भी जान लें। मुगल बादशाह अकबर के दरबार में नौ-रत्न थे, जिनमें एक था महान संगीतकार तानसेन। उससे पहले एक और महान संगीतकार हो चुका था बैजू। उस युग के संगीतकारों को याद करते समय इन दोनों के नाम साथ ही लिये जाते हैं। बैजू का जन्म इस पावागढ़ नगरी में ही हुआ था।
अब पंचमहाल के कलोल शहर में तेल और प्राकृतिक गैस तथा रासायनिक खाद के कारखानों पर एक नज़र डालते हुए आगे निकल चलते हैं। बीच में अहमदाबाद जिला आता है। यहाँ तो देखने के स्थान इतने अधिक है कि उसके बाद हमारा गुजरात
शायद उत्तर गुजरात में जाना हम टाल ही दें। इसलिए उचित यही होगा कि हम महेसाणा, साबरकांठा और बनासकांठा का विहंगावलोकन करने के बाद ही अहमदाबाद में अपना तंबू डालें।


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