उत्तर गुजरात
उत्तर गुजरात को सोलंकी वंश के राजाओं ने स्थापत्य कला से बहुत समृद्ध किया था। इसके अवशेष आज भी पाये जाते हैं। उदाहरण के रूप में देखें तो महेसाणा जिले में दसवीं शताब्दी में राजा मूलराज सोलंकी ने "रुद्रमाल" नाम का मंदिर बनवाया था। मूलराज सोलंकी को उसके मामा ने गोद लिया था। सत्ता की लालसा से उसने अपने मामा की हत्या की। बाद में अपने इस भयानक कृत्य का उसे बहुत ही पछतावा हुआ। प्रायश्चित्त के रूप में उसने रूद्र महालय बनवाने का निश्चय किया। एक गुजराती काव्य में इस "रूद्रमाल" का वर्णन पाया जाता है। उसके चार द्वार, तीन मंडप और 1,600 खंभे थे। हीरे व मूल्यवान मणियों से जड़ित अठारह हज़ार मर्तियाँ थीं और सोने के कलश पर सत्रह हजार ध्वजाएँ लहराती थीं। यह "रूद्रमाल" इतना ऊँचा था कि सिधपुर से बीस किलोमीटर की दूरी पर आये हुए पाटण शहर की पनिहारिने रूद्रमाल से दिखाई देती थीं। विदेशी हमलावरों के आक्रमण से इसका नाश हुआ था। आज तो वह खंडहर की हालत में हैं। कई खंभे टूट गये हैं। दीवारें ढह गई हैं। लेकिन कुछ खंभों की नक्काशी अब भी दिखाई देती है, जिससे प्राचीन भव्यता का अनुमान हो सकता है।
पाटण का नाम लेते ही वहाँ का "पटोला" याद आ जाता है। "पटोला" एक खास प्रकार की रेशमी साड़ी होती है। उसमें डिज़ाइन के अनुसार पहले धागों को रंगा जाता है और उसके बाद बुनाई होती है। यह काम बहुत ही मुश्किल है। कभी-कभी एक साड़ी बनाने में एक साल भी लग जाता है। एक-एक पटोले का मूल्य दो हज़ार से लेकर दस हज़ार रुपये तक होता है। पाटण की यह परंपरागत कला आज भी जीवित है।
28 इसके अतिरिक्त यहाँ का स्थापत्य भी बेजोड है। आठवीं शताब्दी के राजा बन चावड़ा ने अणहिलवाड़ पाटण शहर बसाया था। सोलंकी वंश के राजा सिद्धराज जयहि ने सहखलिंग तालाब बनवाया था। इस तालाब के आसपास शिव के एक हजार मोदর है। आरती के समय जब इन सभी मंदिरों से घंटे बजते हैं तो चारी दिशा मपर ध्व गूंज उठती हैं।
सोलंकी वंश के ही राजा भीमदेव ने उसकी रानी उदयमती के आग्रह से पाटण में "राण की बाव" नाम की बावड़ी बनवाई थी। उसकी रचना और नक्काशी इतनी सुंदर है कि इसको लेकर गुजरात में एक मुहावरा बन गया है:
"राणकी बाव ने दामोदर कूवो
जेणे ना जोयो ते जीवतो मूवो।"
अर्थात् राणकी बाव और दामोदर कुआँ जिसने नहीं देखा हो वह जिंदा होते हुए भी मरे के समान है।
महेसाणा जिले के मोढेरा में जो सूर्य मंदिर है उसको देखकर तो हमें वहाँ से हटने का मन नहीं करेगा। सोलंकी राजा सूर्यवंशी थे। भीमदेव ने ही यह सूर्य मंदिर बनवाया था। पानी की बावली से सीढ़ियाँ ऊपर मंदिर की ओर जाती हैं। सबसे पहले है सभा मंडपा इस मंडप के खंभों और दीवारों पर देव-देवियों की मूर्तियाँ बनी हैं, पशु-पक्षी और फूलों की नक्काशी की गई है। अंदर गर्भगृह में सूर्य की मूर्ति थी, जो आज मौजूद नहीं है। वह मूर्ति इस तरह बनाई गई थी कि सूर्योदय के समय सूर्य की पहली किरण उस मूर्ति के चेहरे पर पड़े। इस के नीचे तहखाना है। उसमें भी शायद सूर्य की ही मूर्ति थी। गर्भगृह की दीवारों में बनी ताों में सूर्य की बारह मूर्तियाँ हैं। इन मूर्तियों के घुटनों तक ऊँचे जूते देखकर ऐसा अनुमान किया जाता है कि वे इरानी शैली में बनी मूर्तियाँ हैं। महमूद गजनवी ने कई मंदिरो का नाश किया था, उनमें से एक मोढेरा का यह सूर्य मंदिर भी है। खंडहर की हालत में भी वह इतना प्रभावशाली दिखाई देता है, तो तब तो कैसा होगा!
साबरकांठा जिले का शामलाजी और बनासकांठा का अंबाजी भी देखने लायक तीर्थस्थान हैं। शामलाजी में मंदिर में श्याम रंग के कृष्ण की मूर्ति है और अंबाजी के मंदिर में देवी अंबा की। अंबाजी के मंदिर के प्रांगण में "भवाई" नाम का गुजरात का लोकनाटक होता है। यह नाटक रात भर चलता है और हजारों लोग उसे देखने आते हैं।मोढेरा का सूर्य मंदिर
अंबा माता की स्तुति से नाटक का प्रारंभ होता है और बड़े रोचक ढंग से कहानी आगे चलती है। इसमें संवाद होते हैं, गीत और गरबा भी होते हैं। रंगलो नाम का विदूषक दर्शकों का मनोरंजन करता है। वह नाटक की कहानी और दर्शकों के बीच के पुल जैसा होता है। दर्शकों के साथ हँसी मजाक करता हुआ उनको भी नाटक में शामिल कर लेता है। एक रात अंबाजी में रूक जाते हैं। भवाई देखने का मौका मिल रहा है, उसे हाथ से जाने न दें। कल सुबह की बस से अहमदाबाद चले जाएँगे।
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