सौराष्ट्र की ओर
पीछे से बस की भोंपू-भोंपू सुनाई दी। हम लोथल की अतीत से वर्तमान में आ गये। भोंपू की आवाज़ के साथ वह जीप याद आ गई जिसमें बाबुल और नीतु सफर कर रहे हैं।
हमने गुजरात के इस भाग में बहुत कुछ देखा। छोटी-छोटी जगहें भी बड़े आराम से, गौर से देखीं। यहाँ कई दिन लगा दिये। बाबुल-नीतु वाली जीप तो शायद कच्छ पहुँच गई होगी। सौराष्ट्र की यात्रा भी हमें अपने आप बसों और बैलगाड़ियों से करनी पड़ेगी।
सौराष्ट्र बड़ा रंगीन इलाका है। लोक-साहित्य और लोककला में बहुत ही समृद्ध है। लोगों में एक प्रकार की मस्ती है। भोलापन भी है। रास-गरबा-भजन तो मानों लोगों की सांसों में है, सौराष्ट्र की हवा और पानी में है।
अहमदाबाद से सौराष्ट्र आते समय पहला जिला आता है सुरेन्द्र नगर का। इस जिले में तरणेतर नामक एक गाँव है। यहाँ भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चौथी, पाँचवी और छठी तिथियों को बहुत बड़ा मेला लगता है। भाद्रपद याने अगस्त-सितंबर के महीने। तरणेतर में भगवान शिव का मंदिर है। इस गाँव का नाम त्रिनेश्वर था। शिव के तीन नेत्र माने जाते हैं ना? फिर त्रिनेश्वर से तरणेतर हो गया। इस मेले में भरवाड़ और रबारी कौम के लोग खास हिस्सा लेते हैं। उनके वस्त्रों पर की गई कढ़ाई और पुरुष तथा महिलाओं की देह पर चांदी के आभूषण देखकर आप दंग रह जाएँगे। सारे सौराष्ट्र से हजारों ग्रामवासी इस मेले में आते हैं। ढोल और "जोड़िया पावा" (अलगोजा याने दो बांसुरियाँ) के साथतरणेतर का मेला
बड़ी मस्ती से रास-गरबा होते हैं। रास को रासड़ा भी कहते हैं। रासड़ा करने वालों के हाथ में छोटी-छोटी लकड़ियाँ होती हैं। इन लकड़ियों को "डांडिया" कहते हैं। सैंकड़ों महिलाएँ बहुत बड़ा वर्तुल बनाकर घंटों भर डांडिया-रास खेलती रहती हैं। मेले के अन्य आकर्षण तो होते ही हैं। आजकल तो केवल शहरों से ही नहीं, भारत दर्शन के लिए आये हुए विदेशी लोग भी इस मेले में शामिल हो जाते हैं।
भारत की आत्मा तो गाँवों में ही है ना? ऐसे मेलों से पता चलता है कि लोग मूलतः कितने सहज, स्वाभाविक और आनंदप्रिय होते हैं। उन पर थोपी गई कृत्रिमता उन्हें बिगाड़ देती है।
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