पालीताणा
मंदिर की बात होते ही पालीताणा याद आ जाता है। गुजरात के दर्शनीय स्थानों में पालीताणा एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। भावनगर से यह 56 किलोमीटर दूर है। वहाँ से कई बसें इस ओर जाती हैं। हम भी एक बस में बैठ जाएँ। डेढ़ घंटे में पालीताणा पहुँच जाएँगे।
पालीताणा पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। यहाँ के सरकारी अतिथिगृह में रात बिता लेते हैं। अच्छा शाकाहारी भोजन भी मिल जाएगा। सुबह सूर्योदय से पहले उठकर शत्रुंजय पर्वत चढ़ना शुरू करेंगे। इस पर्वत के ऊपर जैन मंदिरों की एक नगरी बसी हुई है। कुल मिलाकर 863 मंदिर हैं।
600 मीटर ऊंचे इस शत्रुंजय पर्वत पर चढ़ने के लिए पत्थर की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। वृद्ध, बीमार या कमजोर लोग डोली या कुर्सी के सहारे ऊपर जाते हैं। इनको उठाने वाले लोग किराये पर मिल जाते हैं।
हमने तो सीढ़ियों से चढ़ना पसंद किया। सीढ़ियाँ यदि सीधी चढ़ें तो सांस फूल जाती हैं, लेकिन बाँयें से दाँयें से फिर बाँयें, इस तरह तिरछे चढ़ते रहते तो कोई तकलीफ नहीं होती है। हम भी तिरछे चढ़ रहे हैं। आराम से, आपस में बातें करते हुए, आसपास का सौंदर्य देखते हुए चढ़ते जा रहे हैं। आधे रास्ते पहुँचकर हम सीढ़ी के किनारे के पत्थर पर बैठ गये। यहाँ से शत्रुजी नदी कितनी सुंदर दिखती है। यह गिरनार पर्वत से निकलती है और शत्रुंजय पर्वत को छूती हुई आगे चली जाती है। लेकिन यह शत्रुजी क्यों कहलाती है?पालीताणा के मंदिर
इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे पाता है। खैर, छोड़िये इसे। तर्कबाजी में पड़ेंगें तो ऊपर पहुँचने में देर हो जाएगी।
यह लीजिए, आ गये। ऊपर चढ़ने में एक घंटे से ज्यादा ही समय लग गया। खाकर निकले थे फिर भी भूख लग गई। यहाँ ये महिलाएँ मिट्टी के बर्तनों में क्या बेच रही हैं? यह तो दही है। हम भी इसे खरीद लें। अहाहाहा..... कितना स्वादिष्ट दही है और कितना गाढा है। किसी ने हँसकर कहा: "अरे भाई, छुरी से काटना पड़े इतना सख्त है।" वास्तव में बहुत ही अच्छा दही है।
इस प्रदेश में भैंस का दूध मिलता है। यहाँ रबारी, मेर, आहिर, ऐसी कई कौमें हैं जिनका व्यवसाय पशुपालन है। इन महिलाओं का ही स्वास्थ्य देखो। त्वचा चमक रही है। चेहरा कितना स्वस्थ और खुश दिखता है।
इस तरफ कुछ धर्मशालाएँ हैं। सरकारी अतिथिगृह भी हैं और उस तरफ मंदिर ही मंदिर। पिछले 900 वर्षों में ये सारे मंदिर बने हैं। प्रत्येक श्रद्धालु यात्री की यही मनोकामना रहती है कि 'मेरे पास कुछ पैसे जुट जाय तो मैं भी यहाँ एक मंदिर बनवा दूँ।'50
रास्ता दिखाया। स्वच्छता सिखाई दैनंदिन जीवन के कुछ विशेष आचरण सिखाए। इस प्रकार पिछड़े हुए लोगों के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया।
प्रथम जैन तीर्थंकर श्री आदीश्वर का मंदिर सबसे बड़ा माना जाता है। यहाँ एक चौमुख नाम का मंदिर है। इस मंदिर में आदिनाथ की मूर्ति के चार दिशाओं में, चार मुख हैं। चारों ओर चार द्वार भी हैं। इनके अलावा कुमारपाल, विमल शाह और संप्रीतिराज को समर्पित मंदिर भी बहुत सुंदर है। संगमरमर के मंदिरों में संगमरमर की मूर्तियाँ हैं। बहुत ही चारीक नक्काशी की गई है। जैन स्थापत्यकला का यह अद्भुत उदाहरण है। मंदिरों में मूल्यवान रत्नों का भी बड़ा संग्रह है। इन रत्नों को देखने के लिए यहाँ के प्रबंधक या इन्सपेक्टर साहब से खास अनुमति लेनी पड़ेगी या फिर जब दिन में इनको मूर्तियों पर चढ़ाने की विधि हो रही हो, उसी समय उन्हें देख लेंगें।
यहाँ घूमते पैर थक जाएँगे लेकिन मन तृप्त नहीं होगा। आराम करने के लिए धर्मशालाएँ हैं, लेकिन इनमें रात को ठहर नहीं सकते। यह तो देवों की नगरी है। रात को कोई भी मनुष्य शत्रुंजय पहाड़ी की इस देवनगरी में नहीं रह सकता। सूरज ढलते ही सारे लोग नीचे उतर जाते हैं यहाँ तक कि मंदिर के पुजारी भी।
हम भी नीचे उतर जाएँगे। लेकिन उतरने से पहले आदीश्वर मंदिर के पास अंगार पीर की दरगाह है, उसके दर्शन कर लें। दरगाह में इतने सारे खिलौने क्यों हैं? सभी खिलौने छोटे बच्चे को झुलानेवाले पालने के हैं। बात यह है कि अंगार पीर की बड़ी महिमा मानी जाती है। जिन स्त्रियों को बच्चे चाहिए वे यहाँ आकर दरगाह पर छोटा-सा पालना रखकर मन्नत मागती हैं।
ऐसी अंधश्रद्धा मनुष्य के भोलेपन का ही उदाहरण है। दूसरे तरीके से देखें तो हम यह भी कह सकते हैं कि ऐसी आशाओं के सहारे ही तो मनुष्य अपने दुख को भुलाकर जी लेता है। दुख आ पड़ता है तो ईश्वर को कोसता है और सुख मिले तब ईश्वर याद नहीं आता। उस समय तो वह अपनी बुद्धि की दाद देता है। कैसी विचित्र बात है यह।
भावनगर जिले में और भी कुछ धार्मिक स्थान हैं। तलाजा की पहाड़ी पर प्राचीन बौद्ध गुफाएँ और जैन मंदिर हैं। संतकवि नरसिंह मेहता का जन्म यहीं हुआ था। सोनगढ़ में भी जैन मंदिर है। गढ़ड़ा में स्वामी सहजानंद की गादी है। स्वामी सहजानंद का जन्म सन् 1781 में हुआ था। उनका संप्रदाय स्वामी नारायण संप्रदाय कहलाता है। गुजरात में ऐसी कई पिछड़ी हुई जातियाँ थीं जो शराब पीती थीं, बहुत ही अस्वच्छ वातावरण में रहती थी। उनका जीवन दयनीय था। सहजानंद स्वामी ने उनको बुरी आदतों से मुक्ति पाने का
रास्ता दिखाया। स्वच्छता सिखाई दैनंदिन जीवन के कुछ विशेष आचरण सिखाए। इस प्रकार पिछड़े हुए लोगों के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया।
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