जूनागढ़
अब हम अमरैली को पार करके चलेंगे जूनागढ़ जिले में। यहाँ पर तो वह सासण-गिर का जंगल है, वही, बाबुल-नीतु वाला।
यह है जूनागढ़ शहर। गुजराती भाषा में "जूना" का अर्थ है पुराना और गढ़ याने किला। शहर की चारों ओर किला बंदी है, जो काफी पुरानी है, इसी लिए इस शहर का नाम जूनागढ़ है।
जूनागढ़ के विख्यात होने के दो कारण है। एक गिरनार पर्वत और दूसरा संत कवि नरसिंह मेहता। तो पहले गिरनार हो आते हैं, बाद में नरसिंह मेहता के बारे में जानेंगे।
यह पर्वत तो बहुत बड़ा दिख रहा है। गुजरात का सबसे ऊँचा पर्वत गिरनार ही है। इसकी ऊँचाई 600 मीटर से भी अधिक है। ऊपर जाने के लिए पत्थर की जो सीढ़ियाँ बनी हैं वे भी काफी सीधी हैं। शत्रुंजय पर्वत की तरह यहाँ भी वृद्ध, बीमार या कमजोर लोगों के लिए डोली और कुर्सी का प्रबंध हैं। हम तो अभी ताकतवर हैं, उम्र में छोटे हैं, इसलिए फुर्ती भी काफी है। हम तो सीढ़ियों के रास्ते ही ऊपर जाएँगे। सुना है, लगभग 2,000 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ेंगी। कोई बात नहीं। एक गुजराती कवि ने कहा है कि "याहोम करीने पड़ो, फतेह छे आगे"। "याहोम" कहके कूद पड़ो, आगे सफलता ही मिलेगी।
प्रारंभ में जो बावड़ी दिखती है वह है दामोदर कुंड। वहीं से ज़रा आगे चले तो आ गये शिलालेख। हमने इतिहास में पढ़ा है कि ईसवी सन् 250 में राजा अशोक ने कलिंग
गिरनार पर्वत
युद्ध में मानवसंहार देखकर अपने हथियार फेंक दिये थे। बौद्ध धर्म अपनाकर अहिंसा का प्रचार शुरू किया था। प्रचार का एक माध्यम था शिलालेख। जगह-जगह पर पत्थरों पर गौतम बुद्ध के विचार और अहिंसा के संदेश कुरेदे गये थे। ऐसे ही चौदह शिलालेख इस गिरनार पर हैं, जो राजा अशोक ने पालि भाषा में लिखवाये थे। उन दिनों आम जनता की भाषा पालि थी।
उसके बाद सन् 150 में राजा रूद्रदमन ने और मौर्यवंश के राजा स्कंदगुप्त ने सन् 454 में इसी टीले पर संस्कृत में संदेश लिखवाये थे।
ऐसी वस्तएँ देखने से हम समझ पाते हैं कि जीवन को सुख और शांतिमय बनाने के लिए हमारे देश में कितने लोगों ने कितना कुछ किया है। इतनी मूल्यवान बातों को हमें भुलाना नहीं चाहिए। आगे चलें।
यह है "ऊपरकोट", अर्थात् ऊपर का किला। प्राचीन काल में इस किले को पार करना बहुत ही कठिन था। इसकी दीवारें कहीं-कहीं तो बीस मीटर ऊँची हैं। उसके नक्काशीदार दरवाजे अब तो खंडहर की हालत में हैं। किले के भीतर मध्ययुग के राजपूत राजा का
महल है। एक मस्जिद है, दो कुएँ हैं। अड़ी और चड़ी नामकी दो बहनें इस कुएँ से पानी भरती थी इसलिए यह कुआँ "अड़ी-चड़ी" का कुआँ कहलाता है। "नवधन" नाम का और एक बहुत बड़ा कुआँ हैं। काफी गहरा है। उसके भीतर गोल-गोल सीढ़ियाँ बनी हैं। ऊपर से देखते ही सिर चकरा जाता है। अंदर उतरने की बात तो दूर ही रही।
पहाड़ी के एक ओर लगभग 1500 वर्ष पुरानी बौद्ध गुफाएँ हैं। इसके खंभों पर सुंदर नक्काशी है।
गिरनार तो बादलों से बातें करता हैं। इसके कुल पाँच शिखर हैं। सभी पर संगमरमर के सुंदर मंदिर हैं। यह भी शत्रुंजय की तरह मंदिरों की नगरी है। इनमें सबसे पुराना है बाईसवें जैन तीर्थंकर नैमिनाथजी का मंदिर हैं। 12 वीं शताब्दी में यह मंदिर बना था। यह सबसे बड़ा भी है।
गुजरात के वाघेला वंश के एक राजा थे वीरधवल। उनके मुख्यमंत्री का नाम था वस्तुपाल और वस्तुपाल का ही भाई तेजपाल मुख्य सेनापति था। इन दोनों भाइयों ने गुजरात में कई जैन मंदिर बनवायें हैं। ऐसे सुंदर मंदिरों का एक उदाहरण इस गिरनार पर्वत पर भी है। जैनों के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लीनाथजी का मंदिर भी 12 वीं शताब्दी का है। अंबा माता का मंदिर भी बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता है।
यही नहीं, पास की दातार पहाड़ी पर जयमल शाह पीर की दरगाह है। सुना है कि उनके आध्यात्मिक गुरु पीर पट्टा के कहने पर वे सिंध से जूनागढ़ आये थे।
No comments:
Post a Comment