वडोदरा
शिक्षा और संस्कृति को महत्व देने वाला और एक स्थान है। वडोदरा। विश्वामित्री नदी किखकनारे बसा हुआ वडोदरा गायकवाड़ राजाओं के शासनकाल में एक आदर्श नगर बन चौवा था। कला और संस्कृति के क्षेत्र में गायकवाड़ के जमाने में जो प्रगति हुई थी वह आज भी कायम है। महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की, उसका स्थान आज देश के अग्रगण्य विश्वविद्यालयों में है।
बडोदरा में घूमते समय अधिकतर स्थान ऐसे मिलेंगे जो गायकवाड़ राजाओं से संबंधित हैं। नज़रबाग महल पुरानी शैली में बना हुआ महल है। गायकवाड़ राजा विशेष समारोहों के लिए इस महल का उपयोग करते थे। आजकल यहाँ गायकवाड़ परिवार के कुल की वस्तुएँ रखी गई हैं। इन्हीं राजाओं का इटालियन शैली में बना और एक महल है मकरपुरा महल। अब तो उसे भारतीय वायुसेना का ट्रेनिंग स्कूल बना दिया गया है। लालबाग महल का प्रताप विलास महल पाश्चात्य कला की "रेनेसां" शैली की इमारत है। इस समय उसमें रेलवे स्टाफ कालेज बना हुआ है। यहाँ एक खंड में छोटी रेलवे का मॉडल बनाकर रेलगाडियों की जटिल कारवाईयों का प्रदर्शन किया गया है।
शाही परिवार के रहने के लिये जो महल था उसका नाम है लक्ष्मी विलास महल। इसके निर्माण में भारतीय और मुस्लिम स्थापत्य कला का मिश्रण दिखाई देता है। इस भव्य महल के दरबार खंड में पैर रखते ही आँखें चकाचौंध हो जाएँगी। खंड का फर्श इटालियन पच्चीकारी से बना है। दीवारों पर भी पच्चीकारी की सजावट है। महल में
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बडोदरा
पुराने शस्त्रों तथा कांसा, संगमरमर और मिट्टी की मूर्तियों का असाधारण संग्रह है। टिकट खरीद कर हम ये सब देख सकते हैं। महाराजा फतेह सिंह संग्रहालय में कला का वैभव संग्रहित है। पाश्चात्य कला के रफाएल, तितियन और म्युरिलो जैसे महान चित्रकारों की मौलिक कृतियाँ, आधुनिक युग के पाश्चात्य एवं भारतीय चित्र, ग्रीक व रोमन कला के नमूने, चीनी व जापानी कलाकृतियाँ, भारतीय कला की भी उत्कृष्ट वस्तुओं का विशाल संग्रह यहाँ पाया जाता है।
वडोदरा का भद्र महल मुस्लिम राजाओं ने बनाया था लेकिन पिलाजीराव और दामाजीराव नाम के पहले दो गायकवाड़ राजा इसी महल में रहे थे। इस महल में संगमरमर की बहुत-सी सुदंर नक्काशी हैं।
गायकवाड़ राजाओं ने अपने वडोदरा राज्य को हर तरह से समृद्ध करना चाहा था। उन दिनों की समृद्धि तो आज दिखाई नहीं देती, लेकिन उसके अवशेष इन महलों और संग्रहालयों में आज भी मौजूद हैं। गायकवाड़ शासकों के परिवारों के शव-कक्ष के ऊपर सुंदर इमारत बनाई गई है। इसका नाम है कीर्ति-मंदिर। कीर्ति-मंदिर की दीवारों पर बंगाल के सुप्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस ने चित्र बनाये हैं। इस प्रकार, मृत्यु के बाद भी गायकवाड़ परिवार ने कला और संस्कृति का साथ निभाया है।
सन् 1894 में गायकवाड़ राजा ने वडोदरा संग्रहालय की स्थापना की थी। आज उसमें कला और पुरातत्व, प्राकृतिक इतिहास, विज्ञान और मानवजाति विज्ञान का प्रभावशाली संग्रह है। इसके साथ गायकवाड़ राजा द्वारा ही स्थापित चित्रदीर्घा है। इसमें विदेशी कलाकारों की कृतियों के साथ मुगल लघुचित्र तथा तालपत्र पर अंकित बौद्ध और जैन पांडुलिपियाँ हैं।
वडोदरा में आकर यदि हम सरदार वल्लभभाई पटेल तारामंडल (प्लेनेटोरियम) न देखें तो यात्रा अधूरी रह जाएगी। सयाजीबाग में 200 लोग बैठ सके इतना बड़ा तारामंडल बनाया गया है। तारे और नक्षत्रों का कार्यक्रम तैयार करने के लिए पूर्व जर्मनी के एक विशेषज्ञ को बुलाया गया था। तारामंडल की कुर्सी पर बैठकर उसके गोलाकार गुम्बज में जब हमारे जाने पहचाने स्वाति, कृत्तिका इत्यादि नक्षत्र घूमने लगते हैं, बदलती हुई ऋतुओं के साथ आकाश में इन सब के स्थान बदल जाते हैं, तब पलभर के लिए हमहमारा गुजरात
इस बात को भूल जाते हैं कि हम इस पृथ्वी पर घूमते-फिरते मनुष्य है। उस समय तो उन अलौकिक सौंदर्य का एक हिस्सा बन अनीयक्रम समाप्त होते ही तारों भरा आकाश अदृश्य हो जाता है। बिजली के बल्व जल उठते हैं और अन्य लोगों के साथ हम भी तारामंडल से बाहर निकलकर एक बार किर भूमंडल पर पैर जमा लेते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में भारत ने जो प्रगति की है उसका परिचय देनेवाले कई स्थान वडोदरा में हैं। एक तो यह तारामंडल।
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दूसरा है दवाइयों और पैट्रोकेमिकल्स के बड़े-बड़े कारखाने। वडोदरा शहर को छोड़ते ही कुछ अजीब-सी गंध आने लगती है। वातानुकूलित ट्रेन में आप चैन की नींद ले रहे हों तब भी उस गंध से पता चल जाएगा कि ट्रेन बडोदरा से बाहर निकल रही है। बीमारियों को दूर करने वाली दवाइयाँ जहाँ बनती हैं, उन कारखानों की यह गंध है। उस समय तो हम नाक सिकोड़ लेते हैं लेकिन कोई बीमार हो जाए तो उसी दवाई के लिए दौड़ते हैं।
पैट्रोकेमिकल्स के कारखानों में भी कई प्रकार के रसायन बनते हैं, जिनका हमारे उद्योगों में उपयोग किया जाता है। ये कारखानें वडोदरा शहर से कुछ दूरी पर बनाये गये हैं।
कारखानों की गंध तो जब आप वडोदरा छोडेंगे तब मिलेगी। अभी तो जिससे तबियत खुश हो जाय, वह तो मुँह में पानी लाने वाली स्वादिष्ट चीज़ों की ही गंध हो सकती है। इसलिए अब हम चलते हैं वडोदरा स्टेशन के पास। यहाँ से हमें आगे जाने के लिए ट्रेनें भी मिलेंगीं, लेकिन स्टेशन के पास आये हैं तो ज़रा इस कक्कड़ बाज़ार में झांक लेते हैं। कहते हैं कि "प्राणेन अर्धभोजनम्", याने खुशबू से ही आधा भोजन हो जाता है। तो अब मुँह में पानी लाने वाली कुछ गंधों का ही सेवन कर लेते हैं। इस बाज़ार में लो हरी सब्जियों के ढेर लगे हैं। इस में क़तार गाँव की सेम हैं, छोटे-छोटे गोल बैंगन हैं, हरी अरहर के दाने हैं, शकरकंद और जामुनी रंग के कंद हैं-संक्षेप में कहें तो "उंधियु" के लिए जो सब्जियाँ चाहिए वे सारी यहाँ मौजूद हैं। मुँह में पानी आ गया क्या? इस समय हम "उंधियु" पकाने की झंझट में नहीं पड़ सकते, न ही हमारे पास इतना समय है। आगे चलते हैं। कक्कड़ बाज़ार के सामने बड़ा चौक है जहाँ से शहर के सभी भागों में जाने के लिए बसें मिलती हैं। उसकी दूसरी ओर के बाजार में 'खमण ढोकला', 'लीलो चेवड़ो' और 'कोर्नफ्लेक्स चेवड़ो' मिलते हैं। खमण ढोकला चने की दाल को पीसकर भाप से पकाकर बनाया जाता है। स्पंज की तरह नरम, पीले रंग का और स्वाद में नमकीन होता है।
बडोदरा
"लीलो चेवड़ो" याने हरा चिउड़ा। उस में आलू इत्यादि डला होता है। और कोर्नफ्लेक्स को तलकर उसमें तिल इत्यादि डालकर बनाया गया चिउड़ा है कोर्नफ्लेक्स चिउड़ा।
डभोई
कुछ चिउड़ा और कुछ खमण ढोकला लेकर बस में बैठ जाते हैं। यहाँ से हमें डभोई का किला देखने जाना है।
वडोदरा से 29 किलोमीटर दक्षिण में है डभोई। 13वीं शताब्दी का यह किला सोलंकी युग में राजा सिद्धराज के समय में बनाया गया था। हिंदू स्थापत्य कला का यह उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है। किले की चारों दिशा में चार दरवाज़े हैं। प्रत्येक दरवाजे पर बेनमूत नक्काशी की गई है। चारों दरवाज़ों में सबसे उत्तम है हीरा भागोल के नाम से प्रचलित दरवाज़ा। कहा जाता है कि हीरा नाम के एक अत्यंत कुशल शिल्पी ने इस दरवाज़े को बनाया था। उन दिनों यदि कोई शिल्पी किले के निर्माण में असाधारण कारीगरी दिखा देता था तो ऐसी कला का उपयोग वह और कहीं न कर सके इसलिए राजा उसे किले की दीवार में ही जिंदा चुनवा देते थे। हीरा भी इसी तरह डभोई के किले की दीवार में चिन दिया गया। ऐसी बात सुनकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। अनारकली की कहानी में भी ऐसी ही कुछ बात है ना? मुगल बादशाह अकबर ने अपने बेटे सलीम से अनारकली को अलग करने के लिए उसे दीवार में चिनवा दिया था। खैर..... डभोई के किले में मलिका माता का मंदिर है। उसका शिल्प भी अद्भुत है।
संखेड़ा
कला का और एक नमूना इसी प्रदेश में देखना है तो संखेडा चले जाते हैं। संखेड़ा डभोई के पास ही है। लोग कहते हैं कि लगभग 500 वर्ष पहले उत्तर गुजरात के चांपानेर नगर पर मुसलमानों ने हमला किया था। तब वहाँ से पंचोली जाति के कुछ हिंदू बढ़ई संखेड़ा गाँव चले आये थे। उन का पूरा परिवार लाख की कारीगरी में कुशल था। लाख पेड़ के रस से बनती है। उसे कई तरह से प्रयोग में लाया जाता है। लाख की चूड़ियाँ तो गुजरात और राजस्थान में काफी पहनी जाती हैं। हाँ, तो ये पंचोली बढ़ई लकड़ी से कुर्सी, मेज, पालने, खिलौने इत्यादि बनाते हैं और उस पर लाख के रंगों से अत्यंत कलात्मक चित्रकारी करते हैं। महाभारत में आपने पढ़ा ही होगा कि कौरवों ने पांडवों को खतम करने की
कई तरकीबें की थीं। उनमें से एक थी उनको लाक्षागृह में जला डालने की। लाख का प्रयोग तो बहुत पुराना है। संखेड़ा के पास छोटा उदेपुर के जंगलों में "कुसुम” के पेड़ हैं। बढ़ई इस पेड़ की लकड़ी से कई प्रकार की वस्तुएँ तैयार करते हैं। उसे पानी के रंगों से रंगते हैं और ऊपर कुसुम की लाख से डिज़ाइनें बनाते हैं। वैसे लाख का काम भारत के अन्य स्थानों में भी होता है लेकिन इस कला के क्षेत्र में संखेड़ा पूरे भारत में मशहूर है।
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