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आपने कभी किसी मुर्दा शरीर को छुआ हो तो आप जानते होंगे कि एक मृत शरीर जीवित के मुकाबले ठंडा होता है। वजह? क्योंकि जीवित शरीर भोजन द्वारा प्राप्त ऊर्जा के इस्तेमाल से निरंतर 37 डिग्री गर्म रहता है। मृत्यु के पश्चात शरीर की बायोलॉजिकल मशीनरी ठप्प हो जाती है और शरीर का तापमान गिरने से लाश ठण्डी होती जाती है।
कितनी ठण्डी?
Well... Up To Room Temperature !!!
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पृथ्वी पर पाये जाने वाले अन्य Cold Blooded सरीसृप तथा मत्स्यवर्ग के जीव जैसे छिपकली, घड़ियाल, मगरमच्छ आदि के शरीर का खून ठंडा होने के कारण उन्हें अपने शरीर का तापमान नियंत्रित करने की कोई आवश्यकता नहीं होती, जिस कारण वे जीव एक बार भोजन कर लेने के बाद महीनों अथवा वर्षों तक बिना भोजन किये आराम से जीवित रह सकते हैं।
पर..
वहीं हम स्तनधारी जीव यानी मनुष्यों को Warm Blooded होने के कारण अपने शरीर का तापमान गर्म रखने के लिए निरंतर ऊर्जा प्राप्ति हेतु भोजन जुटाने की जद्दोजहद से दो-चार होना पड़ता है। सात दिन भोजन ना मिलने पर हममें से ज़्यादातर अचेतावस्था में पहुँच जाते हैं तो वहीं दो माह तक भोजन ना करने पर इंसान की मृत्यु अनिवार्य है।
तो बड़ा सवाल यहाँ यह उठता हैं कि हम गर्म खून क्यों हैं? और तापमान 37℃ ही क्यों? क्या इस तापमान में कुछ ख़ास है?
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हमारे इस प्रश्न का उत्तर है... FUNGI !!!
जी हाँ... मैं उसी "फफूंदी" की बात कर रहा हूँ जो खुले छोड़ दिए गए भोजन पर काई के रूप में कुछ दिनों में जम जाती है।
फफूंद नामक सूक्ष्मजीवी की लगभग 99000 ज्ञात प्रजातियां पृथ्वी पर पायीं जाती हैं। मुख्यतः फफूंद जीवित अथवा मृत कार्बनिक पदार्थों को विघटित कर पोषक पदार्थों को वापस वातावरण में उत्सर्जित करती है और इस प्रक्रिया से भोजन प्राप्त करती हैं।
हजारों प्रकार की फफूंद परजीवी होने के कारण जानवरों के शरीर तथा महत्त्वपूर्ण अंगों को गंभीर रूप से संक्रमित करती है। ये फफूंद जल, थल, नभ (वातावरण) हर जगह मौजूद है। यहाँ तक कि आपके कमरे में, आपके जूते के नीचे तथा आपके शरीर तक पर ये फफूंद मौजूद है।
तो ये आपको कुछ ख़ास नुकसान क्यों नही पहुंचाती?
वजह है.. आपके शरीर का तापमान !!
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फफूंद के संक्रमण का ख़तरा तापमान बढ़ने के साथ कम होता चला जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार 99.9% फफूंद प्रजातियों के संक्रमण से सुरक्षित रहने का आदर्श तापमान 36.7 ℃ है। इससे अधिक तापमान शरीर के लिए अनावश्यक है क्योंकि तब शरीर का ऊर्जा व्यय और भोजन की निरंतर आवश्यकता बहुत ज़्यादा बढ़ जायेगी।
इसलिए "न्यूनतम ऊर्जा व्यय के साथ अधिकतम फफुंदियों से सुरक्षा" के मानकों पर 37 डिग्री तापमान शरीर के लिए आदर्श है।
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यही कारण है कि सरीसृप तथा मत्स्य वर्ग के जीव हज़ारों प्रकार के फफूंद से रोगग्रस्त होकर पीड़ित रहते हैं पर वहीँ मनुष्यों के मामले में फफूंद की कुछ प्रजातियां मात्र ही हमें परेशान करने में तथा "दाद" जैसे मामूली चर्मरोग देने में ही सक्षम होती हैं।
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आज से 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर सरीसृप वर्ग के खूँखार डायनासोरों का राज था। डायनासोर आकार में बड़े तथा बेहद शक्तिशाली थे लेकिन डायनासोर समेत पृथ्वी पर मौजूद तत्कालीन सभी प्रजातियां (पक्षी वर्ग को छोड़कर) Cold Blood जीव होती थी जिस कारण वे फफूंद से अपनी रक्षा करने में असमर्थ होने के कारण निरंतर रोगों से पीड़ित रहती थी।
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और एक दिन... आसमान से उल्कापिंड रूपी मौत दबे पाँव झपटी और कहानी के मुख्य नायक बदल गए।
पृथ्वी के नाट्यमंच पर मुख्य भूमिका निभाने हेतु "स्तनधारी" नामक जीवों की एक नयी प्रजाति का उदय हुआ, जिसके प्राइमेट वर्ग में हम मनुष्य... चिंपैंजियों, ओरेंगयूटेन, गोरिल्ला के साथ साझा परिवार "वानर प्रजाति" से आते हैं।
प्रकृति के इस नए प्रयोग में बड़ा परिवर्त्तन यह था कि यह स्तनधारी प्रजाति Warm Blooded थी जिस कारण नुकसान के तौर पर इस प्रजाति के जीवों को निरंतर भोजन की तलाश में भटकना पड़ता था
पर वहीँ फायदा यह भी था कि यह प्रजाति ज़्यादा शारीरिक तापमान के कारण बाहरी परजीवियों के प्रति अधिक प्रतिरोधक क्षमता से युक्त थी।
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तो कहा जा सकता है कि शायद.. संघर्ष की दौड़ में नायक बन कर उभरने की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण कारण हमारे शरीर का तापमान भी रहा है।
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