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कच्छ
हम कच्छ की ओर जा रहे हैं। दोनों तरफ सूखी जमीन है। इसमें खार का प्रमाण इतना अधिक है कि कुछ उग नहीं सकता। इसीलिए यह रेगिस्तान कहलाता है। कच्छ का अधिकतर भाग रेगिस्तान है। एक हिस्से में बड़ा रेगिस्तान है, दूसरे में छोटा। इसे गुजराती में "कच्छर्नु मोटुं रण" तथा "कच्छर्नु नानूं रण" कहते हैं।
कच्छ का छोटा रेगिस्तान 'जादुईनगरी" हैं। सारा प्रदेश उजड़ा हुआ और वीरान है। अक्टुबर से जून महीने तक यहाँ इतनी धूप होती है, मानों आकाश से आग बरस रही हो। सारा वातावरण भट्ठी की तरह तप जाता है। कोई चीज स्थिर दिखाई नहीं देती। आकार टेढ़े-मेढ़े और कभी-कभी तो हवा में तैरते हुए दिखाई देते हैं। धरती पर चारों ओर पानी-सा नज़र आता है। वास्तव में यह पानी नहीं होता, मृगजल होता है। अर्थात् पानी का केवल भ्रम होता है।
इस प्रदेश में जंगली गधे बहुत हैं। ये गधे राष्ट्र की संपत्ति हैं। तभी तो कच्छ का छोटा रेगिस्तान अभयारण्य घोषित किया गया है। ये गधे जब मृगजल से छाई हुई ज़मीन पर दौड़ते हैं तो लगता है कि समुद्र के झगमगाते पानी पर दौड़ रहे हों!
इस रेगिस्तान के बीच में कहीं-कहीं टीले हैं। इन्हें द्वीप या "बेट" कहते हैं। बारिश के दिनों में खारी ज़मीन पानी से लथपथ रहती है। ये टीलें पानी से ऊपर हैं। टीलों पर केवल बबूल के पेड़ दिखाई देते हैं। थोड़ी बहुत घास भी उग आती है। कुछ द्वीपों में खेती भी होती है।
जंगली गधे दिन में तो रेगिस्तान में घूमते रहते हैं रात के समय द्वीप पर आ जाते हैं। वे रेगिस्तान का खारवाला घास खाते हैं, इसलिए बहुत ही ताकतवर हैं। रेगिस्तान के ऊँट को भी देखिए। इनमें कितनी अधिक शक्ति है। ऊँट तो रेगिस्तान का जहाज कहलाता है। खारे घास के कारण कच्छ का पशुधन उत्तम है। है न कुछ नई दुनिया!
जहाँ बड़ा रेगिस्तान है, उसकी कहानी भी इतनी ही रोचक है। दूर-दूर तक कुछ भी नहीं दिखाई देता। लेकिन सर्दी की ऋतु में यह स्थान बिलकुल बदल जाता है। ऊपर से सफेद लेकिन जब उड़ते हैं तब केसरी-गुलाबी सुरखाब पक्षी कुछ महीनों के लिए यहाँ अपना घर बना लेते हैं। उनकी एक नई नगरी बस जाती है। उनके घोंसले बनते हैं, अंडे एकते हैं, चूजे निकलते हैं। सर्दी कम होते ही परीकथा की किसी जादुईनगरी की तरह सब कुछ गायब हो जाता है।
ये सुर्खाब बहुत दूर के बर्फीले प्रदेश से आते हैं और उन्हें देखने के लिए दूर-दूर से लोग भारत आते ते हैं। वैसे उनकी नगरी तक पहुँचना आसान नहीं है। कई दिनों तक ऊँट पर सफर करते रहिए, तब कहीं उनकी झलक दिखाई देगी। वे इंसानों की दुनिया से दूर ही रहना पसंद करते हैं।
कच्छ का प्रदेश एक ओर रेगिस्तान से तो दूसरी ओर समुद्र से घिरा हुआ है। बारिश के दिनों में जब रेगिस्तान की धरती गीली हो जाती है तब कच्छ समुद्र के बीच स्थित द्वीप जैसा लगता है। कछुए के आकार का द्वीप।
कंडला-मांडवी
समुद्र किनारे का कंडला बंदरगाह गुजरात का सबसे बड़ा बंदरगाह है। सन् 1930-31 में कच्छ के महाराजा खंगारजी ने इसे विकसित करने का प्रयत्न किया था। आज यहाँ से काफी माल बाहर भेजा जाता है। मांडवी भी मध्यम कक्षा का बंदरगाह है। सुना है, इधर से तस्करी बहुत होती है। डर लगता है न? वैसे समुद्र किनारा काफी विशाल और सुंदर है।
सुर्खाव पक्षियों की नगरी
नल सरोवर
नारायण सरोवर
कच्छ के उत्तर में समुद्र तट के पास नारायण सरोवर है। यह सरोवर बड़ा पवित्र माना जाता है। भारत में कुल पाँच पवित्र सरोवर कहे गये हैं, उत्तर में कैलाश पर्वत का मानसरोवर, दक्षिण में पंपा सरोवर, पूर्व में भुवनेश्वर का बिंदु सरोवर, राजस्थान का पुष्करराज और पश्चिम में यह नारायण सरोवर तीर्थस्थान माना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ मेला लगता है। कच्छ, राजस्थान, सौराष्ट्र और गुजरात के काफी यात्री यहाँ एकत्रित होते हैं।
मेले और त्यौहार का ही ऐसा समय होता है जब हमें उस प्रदेश की ग्राम्य जनता अर्थात् मूल आत्मा को देखने का मौका मिलता है। यहाँ हिंदू और मुसलमान, दोनों धर्मों के काफी लोग हैं। उत्तर की सरहद पर पाकिस्तान है। उत्तरी कच्छ की बन्नी कौम मुसलमान है। उनका नृत्य-संगीत, उनके घर, बर्तन, उनके कपड़े, आभूषण, उनके कपड़ों पर कढ़ाई तो ज़रा देखिए। लोककला की इतनी समृद्धि देखकर आप दंग रह जाएँगे।
कच्छ का बंधेज भी इतना ही मशहूर है। गरम शालों पर बंधेज का काम आजकल इतना लोकप्रिय हो गया है कि केवल हमारे देश में ही नहीं, विदेशों में भी महिलाएँ, इन्हें
गौरव के साथ ओढ़ती हैं।
भुज कन्या का मुख्य शहर भुज है। अन्य प्राचीन नगरों की तरह इसके भी चारों ओर किला बबंदी है। भुज का संग्रहालय, आयना महल, प्राचीन महल देखने लायक हैं।
भुज का बाज़ार देखते हैं। छोटी-छोटी गलियाँ हैं। दोनों तरफ दुकानें। दिल्ली या बम्बई में जो वस्तुएँ बड़े-बड़े वातानुकूलित "स्टोर" में मिलती हैं, वे यहाँ रास्ते पर बिकती है। हम भी कुछ बन्नी-कढ़ाई की वस्तुएँ खरीद लेते हैं। सचमुच, बहुत ही सस्ता है। लोग भी कितने सरल और हंसमुख हैं। इनकी भाषा गुजराती से अलग लगती है। हाँ, अलग ही है। कच्छ की एक ओर सिंध है और दूसरी ओर गुजरात, इसलिए भाषा में भी दोनों का मिश्रण है। इसे "कच्छी” कहते हैं। वैसे यह "बोली" है, इसकी अपनी लिपि नहीं है। कच्छी लिखनी हो तो गुजराती लिपि में लिखनी होती है।
भुज के पास ही वह अंजार शहर है जहाँ कई बार भूकंप हुए हैं और सारा शहर ध्वस्त हो चुका है। अंजार के पास जेसल-तोरल की समाधि है। जेसल-तोरल की कहानी
बड़ी रोचक है।
जेसल-तोरल
प्राचीन काल की बात है। गुजरात के इस कच्छ प्रदेश में रायघण नाम का एक राजा राज करता था, उसके सबसे बड़े पुत्र के बेटे का नाम जेसल था। वह बचपन से ही बड़ा निडर, साहसी और शरारती था। बड़ा होकर वह एक मशहूर लुटेरा बन गया, लोग उससे डरने लगे।
एक बार जेसल की भाभी ने उसे ताना मारते हुए कहा कि यहाँ की बस्ती को तुम इतना सता रहे हो, हिम्मत हो तो सोरठ के सांसतिया काठी के घर जाओ। उनकी पत्नी तोरल चांद का टुकड़ा है। उनकी घोड़ी का नाम भी तोरल है। ऐसी बढ़िया घोड़ी दुनिया में किसी के पास नहीं होगी और काठी की तलवार भी बरामदे में लटक रही होगी। सच में बहादुर हो तो इन तीनों को ले आओ।
जेसल ने जोश में आकर कहा कि देख लेना भाभी, इन तीनों को न ले आऊँ तो मेरा नाम जेसल नहीं।
एक रात जेसल सांसतिया काठी के घर जा पहुँचा। घना अंधेरा था। लगता था, जैसे आकाश से अंधकार बरस रहा हो। जेसल लाल लुंगी पहने और काला कंबल ओढ़े मानो अंधेरे में घुलमिल गया था। उसके एक हाथ में तलवार थी और दूसरे हाथ में दीवार में सेंध लगाने का औजार था।
मकान की पिछली दीवार में जेसल ने छेद करना शुरू किया। धीरे-धीरे दीवार टूटने लगी। छेद बड़ा होने लगा। घर के भीतर से भजन की आवाज आ रही थी। पर इस सबसे
बेखबर जेसल अपने काम में जुटा रहा। जब छेद काफी बड़ा हो गया, तो वह उसमें से होकर भीतर चला गया।
वह घोडे बांधने की जगह थी। एक फुर्तीली घोडी वहाँ खड़ी थी। उसकी आँखें अंगारों की तरह चमक रही थी। पराये आदमी की गंध पाकर वह जोर से हिनहिनायी।
सांसतिया संत पुरुष था। दिन-रात भजन और प्रभ-भक्ति में लीन रहता था। इस समय भी कीर्तन चल रहा था। भजन समाप्त हआ। घोडी फिर हिनहिनायी। सांसतिया ने अपने आदमी से कहा- भाई, जाकर पता लगाओ कि यह घोडी आज इतनी क्यों हिनहिना रही है? कहीं सांप-बिच्छू तो नहीं निकल आये?
यह सुनकर घोड़ी के खूंटे के पास जो घास बिछी थी, उसके नीचे जेसल छिप गया। उस आदमी ने आकर देखा, तो घोड़ी ने खूंटा ही उखाड़ दिया था। उसने एक पत्थर से वह खूंटा फिर से जमीन में गाड़ दिया और घोड़ी को बांधकर चला गया। इधर वह खूंटा बेसल की हथेली के आरपार निकल गया। उसे बेहद पीड़ा होने लगी। खून की धारा बह निकली पर जेसल के मुँह से आह तक नहीं निकली। वह चुपचाप पड़ा रहा।
भजन समाप्त होने पर आरती हुई। प्रसाद बांटा गया। सभी को प्रसाद देने के बाद भाल में एक आदमी के हिस्से का प्रसाद बच गया। यह देखकर सांसतिया ने कहा कि यहाँ एक आदमी और होना चाहिए। वह उसी के हिस्से का प्रसाद है। उसे ढूंढो।
ढूंढते-ढूंढते एक आदमी उस घोड़ी के पास पहुँच गया। वहाँ देखा तो घास खून से लथपथ थी। घास हटायी तो नीचे जेसल और उसकी हथेली के आरपार खूंटा। उसने खूंटा खींचकर बाहर निकाला। जेसल खड़ा हो गया। उस आदमी ने आवाज देकर सांसतिया और उसकी पत्नी तोरल को बुलाया। दोनों वहाँ आये। जेसल तो तोरल का रूप देखता ही रह गया। तभी सांसतिया ने उससे पूछा आप कौन हैं?
जेसल बोला-राजपूत ।
सांसतिया ने आगे पछा आपका नाम, स्थान?
जेसल ने जवाब दिया-स्थान कच्छ, नाम जेसल।
जेसल का नाम सुनकर सारे भक्तजन कांप उठे। पर सांसतिया ने शांत स्वर में फिर पूछा- क्यों आये हो?
जेसल बोला-चोरी करने।
हैरान होकर सांसतिया ने पूछा किस चीज की?
उसने जवाब दिया-सांसतिया की पत्नी तोरल, उसकी घोड़ी और तलवार की। सांसतिया ने जेसल के हाथ की ओर देखकर पूछा- यह क्या हुआ? जेसल ने बताया कि जब वह घास के नीचे छुपा था, तब लोहे का खूंटा उसकी हथेली के आरपार निकल गया था।
सांसतिया जेसल की हिम्मत और सहनशक्ति पर खुश हो गये। पर उन्हें दुःख हुआ कि इतना शक्तिशाली पुरुष गलत रास्ते पर चला गया है। उसे यदि सही रास्ते पर लाया जाये, तो उसमें उसका कल्याण होगा और दूसरों का भी। वे जानते थे कि उनकी पत्नी तोरल पतिव्रता नारी है। वह त्याग और ममता की देवी है। शायद तोरल जेसल को बदल सके, इस शैतान को मानव बना सके। उन्होंने अपनी पत्नी की ओर देखा। तोरल समझ गयी। उसने आँखों से सहमति दे दी।
सांसतिया बोले की आज दूज की रात है, अतिथि खाली हाथ नहीं जा सकते। यह लो मेरी घोड़ी और तलवार। फिर तोरल से कहा कि सती तोरल, इनको संभालना और जब तुम दोनों का मन करे तब भजन गाने चले आना।
जेसल आश्चर्य से देखता रह गया। वह समझ नहीं पाया कि यह सच है या सपना है। खैर, उसने तोरल को घोड़ी पर बैठने के लिए कहा। तोरल बोली कि बेचारी घोड़ी पर
इतना बोझ क्यों डालते हो? आप बैठिए। मैं साथ-साथ दौडूंगी।
सुबह होते-होते घोड़ी पर सवार जेसल और साथ में दौड़ती हुई तोरल नवानगर की खाड़ी के किनारे पहुँचे। नाव तैयार खड़ी थी। तीनों नाव में बैठ गये। नाव चल पड़ी। जेसल गर्व से फूला नहीं समा रहा था, पर तोरल के शांत और पवित्र चेहरे को देखकर जेसल को अपने आप से घृणा होने लगी।
अचानक समुद्र में भयानक तूफान उठा। नाव डूबने-उतरने लगी। बीच समुद्र में उसे बचाने का कोई उपाय नहीं था। पलभर पहले का साफ आकाश काले बादलों से घिर गया। जेसल का चेहरा पीला पड़ गया। उसे अपनी मौत का डर लगा। उसने देखा तो तोरल शांत बैठी थी। उसके चेहरे पर भय की रेखा तक नहीं थी। कायर जेसल रो उठा। बोला तोरल देवी, मुझे बचाओ।
तोरल हंसकर बोली- बहादुर लुटेरा तूफान से डर रहा है?
जेसल सूखे पत्ते की तरह कांप रहा था। वह तोरल के पैरों को पकड़कर गिड़गिड़ाया-मुझे बचा लो तोरल देवी।
तोरल बोली-धर्म को याद करो, अपने पापों को याद करो। मैं तुम्हारी नाव को डूबने नहीं दूंगी। जल्दी करो। देखो, जैसे तुम्हें अपना जीवन प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी अपनी जिंदगी प्यारी होती है। तुमने कितनी जानें ली हैं? कितने पाप किये हैं? ईश्वर से माफी मांग लो।
जेसल बिलख कर बोला- मैंने पाप ही पाप किये हैं। कितने पाप गिनाऊँ मैंने लोगों के मुँह से पानी तक छीन लिया है। बारातें लूटी हैं। घोड़ी पर सवार दूल्हों को तलवार के एक झटके से मार डाला है। सिर पर जितने बाल होते हैं, उनसे भी अधिक पाप मैंने किये हैं। मुझे माफ कर दो, ईश्वर मुझे बचा लो। तोरल देवी, मुझे बचा लो।
धीरे-धीरे तूफान थम गया। आकाश स्वच्छ हो गया। नाव स्थिर हो गयी। मानो समुद्र देवता ने जेसल का प्रायश्चित्त मान लिया हो। जेसल मौत की भयानकता को पहचान गया। जीवन की मधुरता को जान गया। तोरल देवी ने उस शैतान को इंसान बना दिया। एक अच्छा इंसान।
जेसल-तोरल का नाम आज भी गुजरात के कोने-कोने में गूंजता है !
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